राष्ट्रवाद को समझने से पहले हम लोग राष्ट्र को समझते हैं
लगभग 17 वी शताब्दी में राष्ट्र का मतलब होता था किसी राज्य की जनसंख्या चाहे उन लोगों में एकता की भावना हो या ना हो उसका मतलब नहीं होता था 1772 ईस्वी में जब पोलैंड का विभाजन हुआ तो उस समय राष्ट्र का मतलब देशभक्ति होने लगा 18 वी शताब्दी के अंत तक यह राजनीतिक रूप ले लिया और 19वीं शताब्दी मैं इसका अर्थ कुछ और हो गया देश की स्वतंत्रता कराने की ओर बढ़ चला।
राष्ट्रवाद के अर्थ को लेकर व्यापक चर्चाएँ होती रही हैं, हालाँकि देखा जाए तो राष्ट्रवाद एक आंतरिक भाव है, जो देश-विशेष के लोगों को एकता के सूत्र में बांधता है। आधुनिक लोकतंत्र की तरह राष्ट्रवाद भी यूरोप की ही देन है। राष्ट्रवाद के प्रतिपादक जॉन गॉटफ्रेड हर्डर थे, जिन्होंने 18वीं सदी में पहली बार इस शब्द का प्रयोग करके जर्मन राष्ट्रवाद की नींव डाली। उस समय यह सिद्धांत दिया गया कि राष्ट्र सिर्फ समान भाषा, नस्ल, धर्म या क्षेत्र से बनता है। किंतु, जब भी इस आधार पर समरूपता स्थापित करने की कोशिश की गई तो तनाव एवं उग्रता को बल मिला। जब राष्ट्रवाद की सांस्कृतिक अवधारणा को ज़ोर-ज़बरदस्ती से लागू करवाया जाता है तो यह ‘अतिराष्ट्रवाद’ या ‘अंधराष्ट्रवाद’ कहलाता है। इसका अर्थ हुआ कि राष्ट्रवाद जब चरम मूल्य बन जाता है तो सांस्कृतिक विविधता के नष्ट होने का संकट उठ खड़ा होता है। आत्मसातीकरण और एकीकरणवादी रणनीतियाँ विभिन्न उपायों द्वारा एकल राष्ट्रीय पहचान स्थापित करने की कोशिश करती हैं, जैसे-
संपूर्ण शक्ति को ऐसे मंचों में केंद्रित करना, जहाँ प्रभावशाली समूह बहुसंख्यक हो और जो स्थानीय या अल्पसंख्यक समूहों की स्वायत्तता को मिटाने पर आमादा हो।
प्रभावशाली समूह की परंपराओं पर आधारित एकीकृत कानून एवं न्याय व्यवस्था को थोपना।
प्रभावशाली समूह की भाषा को ही एकमात्र राजकीय ‘राष्ट्रभाषा’ के रूप में अपनाना और उसके प्रयोग को सभी सार्वजनिक संस्थाओं में अनिवार्य बना देना।
प्रभावशाली समूह के इतिहास, शूरवीरों और संस्कृति को सम्मान प्रदान करने वाले राज्य प्रतीकों को अपनाना।
राष्ट्रीय पर्व, छुट्टी या सड़कों आदि के नाम निर्धारित करते समय भी इन्हीं बातों का ध्यान रखना।
अल्पसंख्यक समूहों और देशज लोगों की ज़मीनें, जंगल एवं जल क्षेत्र छीनकर उन्हें ‘राष्ट्रीय संसाधन’ घोषित कर देना।
निष्कर्ष- भारत अपनी सांस्कृतिक विविधता को मिटाकर ऐसे राष्ट्रवाद की मान्यता को ग्रहण नहीं करता है, क्योंकि हमारे देश और पश्चिमी देशों की राष्ट्र संबंधी अवधारणा में अंतर है। पश्चिम का राष्ट्रवाद एक प्रकार का बहुसंख्यकवाद है, जबकि एक राष्ट्र के रूप में भारत अपनी विविध भाषाओं, अनेक धर्मों और भिन्न-भिन्न जातीयताओं का एक समुच्चय है।
भारत में राष्ट्रवाद
भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन , राजनीतिक संगठनों , विचारकों , क्रांतिकारों को मिलाकर किए गए कुछ ऐसे आंदोलन थे जिनका एक ही लक्ष्य था भारत से ईस्ट इंडिया कंपनी को जड़ से उखाड़ फेंकना स्वतंत्रता प्रप्ति में इन क्षेत्रीय अभियानों आंदोलनों प्रयत्नों और कुछ क्रांतिकारी आंदोलनों का खासा महत्व है । यहां हम आपको बता रहे है कुछ ऐसे भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन और घटनाओं के बारे में जिनकी वजह से भारत को स्वतंत्रता मिली ।
भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन राष्ट्रवाद का उदय (Rise of nationalism) - भारत में संगठित राष्ट्रीय आंदोलन उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में प्रारम्भ हूआ था। मुख्य रूप से ब्रिटिश साम्राजयवाद की नीतियों की चुनौतियों के प्रत्युत्तर में भारतीयों ने एक राष्ट्र के रूप में सोचना प्रारम्भ किया था। भारतीयों में राष्ट्रीय भावना के विकास तथा भारत में राष्ट्रीय आंदोलन के लिए स्वयं ब्रिटिश शासन ने आधार तैयार किया।
भारत में राष्ट्रवाद के उदय के कारण
राष्ट्रवाद के उदय के लिए विभिन्न कारण सम्मिलित रूप से ब्रिटिश शासन तथा उसके प्रत्यक्ष तथा परोक्ष परिणामों ने भारत में राष्ट्रीय आंदोलन के विकास के लिए भौतिक , नैतिक तथा बौद्धिक परिस्थितियां तैयार की धीरे - धीरे भारतीय समाज के प्रत्येक वर्ग और प्रत्येक समूह ने देखा कि उसके हित कभी भी अंग्रजी शासन के हाथ में सुरक्षित नहीं रह सकते।
अंग्रेजी सरकार की छत्र - छाया में किसानों से मालगुजारी के नाम पर उपज का बहुत बड़ा भाग ले लिया जाता था। जमींदारों , व्यापारियों तथा सूद खोरों को किसानों से लगान वसूलने तथा तरह - तरह से उसका शोषण करने के लिए सरकारी पदाधिकारियों व कर्मचारियों का पूरा सहयोग प्राप्त था । सरकारी नीति जिसमें विदेशी प्रतियोगिता को प्रोत्साहन दिया जा रहा था के कारण दस्तकार तथा शिल्पी भी बेरोजगार होने लगे थे , कारखानों तथा बागानों में मजदूरों का तरह - तरह से शोषण हो रहा था ।
इस प्रकार विदेशी साम्राज्य की भेदभाव पूर्ण नीतियों के परिणामस्वरूप भारतीयों में वाद की भावनाओं ने जन्म लेना प्रारम्भ किया , इस प्रकार एक शक्तिशाली साम्राज्यवाद विरोधी राष्ट्रीय आंदोलन का धीरे - धीरे विकास हुआ इसने लोगों में एकता स्थापित करने और साम्राज्यवाद का मिलकर विरोध करने के लिए महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया।
सरकार एक और विदेशी पंूजीपतियों को प्रोत्साहित कर रही थी दूसरी ओर देश के लोगों को पूरी तरह से अनदेखा किया जा रहा था , सरकार की व्यापारिक कर चुंगी तथा यातायात संबंधी नीतियों के कारण भारतीय पूंजीपति वर्ग को बहूत नुकसान उठाना पड़ रहा था समाज के सभी वर्गो के हो रहे शोषण के कारण लोगों ने महसूस किया कि ब्रिटिश सरकार के अधिन अब और लम्बे समय तक नहीं रहा जा सकता उन्नीसवीं शताब्दी में यूरोप में राष्ट बन चुके थे , जिसका भारतीयों पर राष्ट्रवादी विचारों के सन्दर्भ में बहुत ही अनुकूल प्रभाव पड़ा।
पाश्चात्य शिक्षा एवं संस्कृतिक ने राष्ट्रवादी भावना जगाने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया । पढ़े - लिखे भारतीयों को बर्क , मिल , ग्लैडस्टोन , वाइट , मैकाले जैसे लोगों के विचार सुननें का अवसर मिला तथा मिल्टन , शैले व वायरन आदि महान कवियों की कविताएं पढ़ने एवं रूसो , मैजिनी तथा वाल्टेयर आदि लोगों के विचारों को जानने का सौभाग्य मिला , जिससे भारतीयों में राष्ट्रवादी भावनाओं ने जन्म लिया अनेक धार्मिक तथा समाज सुधारकों , जैसे - राजाराम मोहन राय देवेन्द्र नाथ ठाकुर किशोर चन्द्र सेन , पी . सी . सरकार , ईश्वरचन्द्र विद्यासागर , स्वामी दयानन्द सरस्वती , रामकृष्ण परमहंस तथा स्वामी विवेकानंद आदि ने भारत के अतीत का गौरवपूर्ण चित्र उपस्थित का भारतीयों में राष्ट्रवाद के विकास के लिए महत्वपूर्ण भूमिका का निर्चाह किया , अनेक समाचार - पत्रो तथा साहित्य ने लोगों में राष्ट्रीय जागरण की भावना को जगाया , राजाराम मोहन राय ने सर्वप्रथम राष्ट्रीय प्रेस की नींव डाली तथा “ संवाद कौमुदी ” बंगला में तथा ’ मिरात उल अखबर फारसी में , का सम्पादन कर भारत में राजनैतिक जागरण की दिशा में प्रयास किया। इनके अतिरिक्त इण्डियन मिरर , बम्बई समाचार , दि हिन्दू , पैट्रियाट , अमृत बाजार पत्रिका , दि केसरी आदि समाचार - पत्रों का प्रभाव भी बहुत महत्वपूर्ण था।
राष्ट्रीय साहित्य का भी राष्ट्रीय भावना की उत्पत्ति की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान रहा। भारतेन्दु हरिशचन्द्र , प्रताप नारायण मिश्र , बाल कृष्ण भट्ट , बद्री नारायण चैधरी , दीन बन्धु मित्र , हेम चन्द्र बैनर्जी , नवीनचन्द्र सेन , बंकिम चन्द्र चटोपाध्याय तथा रविन्द्र नाथ ठाकुर की रचनाओं ने लोगों को काफी हद तक प्रभावित किया और लोगों में राष्ट्रीय चेतना जगाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। तीव्र परिवहन तथा संचार साधनों में रेल , डाक - तार आदि के विकास ने भी राष्ट्रवाद की जड़ को मजबूत किया। इनके अतिरिक्त लार्ड लिटन के कार्यकाल में 1876 से 1884 तक बिना सोचे - समझे ब्रिटिश सरकार द्वारा कुछ ऐसे कार्य किए गए जिनसे राष्ट्रीय आन्दोलन को तीव्र गति प्राप्त हुई। 1877 में जब दक्षिण भारत के लोग अकाल से पीड़ित थे तो लिटिन ने ऐतिहासिक दिल्ली दरबार लगाया था।
1877 में भारतीयों को सार्वजनिक सम्पत्ति का गला घोटने के लिए प्रसिद्ध भारतीय प्रेस अधिनियम स्वीकार किया गया। भारतीयों और यूरोपियनों के बीच भेद - भाव पर आधारित शस्त्र अधिनियम भी इसी समय स्वीकार किया गया। अन्त में इल्बर्ट बिल ने भारतीयों के दिलों को पुनः जबरदस्त ठेस पंहुचाई तथा भारतीयों के अन्दर राष्ट्रीयता की भावना जगाने में एक बार फिर महत्वपुर्ण योगदान दिया।
स्वाधीनता संग्राम में समाज सुधारकों की भूमिका
भारत में समाज सुधारकों का एक महान और गौरवपूर्ण इतिहास है जिन्होंने आधुनिक भारत की नींव रखी और अपनी राजनीतिक एवं दार्शनिक शिक्षाओं से सम्पूर्ण विश्व को प्रभावित किया। इन्होने समाज व्याप्त बुराइयों तथा कुरीतियों के साथ-साथ विदेशी शासन के उन्मूलन और और स्वतन्त्रता संग्राम में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। भारत में समय-समय पर अनेक समाज सुधारक हुए हैं यथा- स्वामी दयानंद सरस्वती, राजा राममोहन राय, स्वामी विवेकानंद, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, विनोबा भावे, केशव चन्द्र सेन, सर सैयद अहमद ख़ाँ, देवेन्द्रनाथ ठाकुर, द्वारकानाथ ठाकुर, मदनमोहन मालवीय, रबीन्द्रनाथ ठाकुर, महात्मा गांधी, एनी बेसेंट, दादा भाई नौरोजी, बिरजानन्द, बाबा आम्टे, जोगेन्द्र नाथ मंडल, ईश्वर चन्द्र विद्यासागर, छत्रपति साहू महाराज, मुंशी दयानारायण निगम, महादेव गोविन्द रानाडे, फ़िरोजशाह मेहता, लक्ष्मी नारायण साहू आदि, इन्होने भारत की गौरवपूर्ण संस्कृति का अपनी शिक्षाओं से सम्पूर्ण विश्व में प्रचार किया. भारत एवं इसकी संस्कृति के गौरव को विदेशों में जाग्रत किया, और भारतीयों की हीन भावनाओं को खत्म करके उन्हे स्वतंत्रता प्राप्ति की ओर अग्रसर किया। भारत के स्वाधीनता संग्राम में इनके योगदान निम्नलिखित हैं-
स्वामी दयानन्द सरस्वती ने तत्कालीन समाज में व्याप्त सामाजिक कुरीतियों तथा अन्धविश्वासों और रूढियों-बुराइयों को दूर करने के लिए, निर्भय होकर उन पर आक्रमण किया। उन्होंने जन्मना जाति का विरोध किया तथा कर्म के आधार वेदानुकूल वर्ण-निर्धारण की बात कही। वे दलितोद्धार के पक्षधर थे। उन्होंने स्त्रियों की शिक्षा के लिए प्रबल आन्दोलन चलाया। उन्होंने बाल विवाह तथा सती प्रथा का निषेध किया तथा विधवा विवाह का समर्थन किया। महर्षि दयानन्द समाज सुधारक तथा धार्मिक पुनर्जागरण के प्रवर्तक तो थे ही, वे प्रचण्ड राष्ट्रवादी तथा राजनैतिक आदर्शवादी भी थे। वे अपने प्रवचनों में राष्ट्रीयता का संदेश देते थे। स्वामी दयानंद "स्वराज्य के प्रथम सन्देशवाहक" थे। स्वामी दयानन्द पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने 'आर्यावर्त (भारत) आर्यावर्तियों (भारतीयों) के लिए' की घोषणा की।
सरदार पटेल के अनुसार भारत की स्वतन्त्रता की नींव वास्तव में स्वामी दयानन्द ने डाली थी।
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने स्वामी दयानंद को "आधुनिक भारत का निर्माता" माना।
राजा राम मोहन राय को भारतीय पुनर्जागरण का अग्रदूत और आधुनिक भारत का जनक कहा जाता है। वे ब्रह्म समाज के संस्थापक, भारतीय भाषायी प्रेस के प्रवर्तक, धार्मिक सुधारक, जनजागरण और सामाजिक सुधार आंदोलन के प्रणेता तथा बंगाल में नव-जागरण युग के पितामह थे। उनकी लड़ाई अपने ही देश के नागरिकों से थी। जो अंधविश्वास और कुरीतियों में जकड़े थे। बाल-विवाह, सती प्रथा, जातिवाद, कर्मकांड, पर्दा प्रथा आदि का उन्होंने भरपूर विरोध किया। उन्होंने अपने अथक प्रयासों से सरकार द्वारा इस सतीप्रथा को ग़ैर-क़ानूनी दंण्डनीय घोषित करवाया। राजा राममोहन राय आधुनिक शिक्षा के समर्थक थे। 1814 में उन्होंने आत्मीय सभा को आरम्भ किया। हिन्दू समाज की कुरीतियों के घोर विरोधी होने के कारण 1828 में उन्होंने 'ब्रह्म समाज' की स्थापना की।
उन्होंने भारत में स्वतंत्रता आंदोलन और पत्रकारिता के कुशल संयोग से दोनों क्षेत्रों को गति प्रदान की, समाचार पत्रों की स्वतंत्रता के लिए उनके द्वारा चलाये गये आन्दोलन के द्वारा ही 1835 ई. में समाचार पत्रों की अज़ादी के लिए मार्ग बना। रवीन्द्रनाथ टैगोर के अनुसार, राममोहन राय ने भारत में आधुनिक युग का सूत्रपात किया। उन्हें भारतीय पुनर्जागरण का पिता तथा भारतीय राष्ट्रवाद का प्रवर्तक भी कहा जाता है।
स्वामी विवेकानन्द एक युवा सन्यासी के रूप में भारतीय संस्कृति की सुगन्ध विदेशों में बिखरने वाले साहित्य, दर्शन और इतिहास के प्रकाण्ड विद्वान थे। युगांतरकारी आध्यात्मिक गुरु, जिन्होंने हिन्दू धर्म को गतिशील तथा व्यवहारिक बनाया और सुदृढ़ सभ्यता के निर्माण के लिए आधुनिक मानव से पश्चिमी विज्ञान व भौतिकवाद को भारत की आध्यात्मिक संस्कृति से जोड़ने का आग्रह किया। भारत में स्वामी विवेकानन्द के जन्म दिवस को राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है।
भारत के पुनर्निर्माण के प्रति उनके लगाव ने ही उन्हें अंततः 1893 में शिकागो धर्म संसद में जाने के लिए प्रेरित किया, जहाँ वह बिना आमंत्रण के गए थे, स्वामी विवेकानन्द ने वहाँ भारत और हिन्दू धर्म की भव्यता स्थापित करके ज़बरदस्त प्रभाव छोड़ा। उन्हीं का व्यक्तित्व था, जिसने भारत एवं हिन्दू-धर्म के गौरव को प्रथम बार विदेशों में जाग्रत किया। उनके द्वारा दिए गए वेदांत के मानवतावादी, गतिशील तथा प्रायोगिक संदेश ने हज़ारों लोगों को प्रभावित किया।
स्वामी विवेकानन्द ने सदियों के आलस्य को त्यागने के लिए भारतीयों को प्रेरित किया और उन्हें विश्व नेता के रूप में नए आत्मविश्वास के साथ उठ खड़े होने तथा दलितों व महिलाओं को शिक्षित करने तथा उनके उत्थान के माध्यम से देश को ऊपर उठाने का संदेश दिया।
स्वामी विवेकानन्द ने घोषणा की कि सिर्फ़ अद्वैत वेदांत के आधार पर ही विज्ञान और धर्म साथ-साथ चल सकते हैं। विवेकानंद ने 1 मई 1897 में कलकत्ता में रामकृष्ण मिशन और 9 दिसंबर 1898 को कलकत्ता के निकट गंगा नदी के किनारे बेलूर में रामकृष्ण मठ की स्थापना की।
ईश्वर चन्द्र विद्यासागर भारत के प्रसिद्ध समाज सुधारक, शिक्षा शास्त्री व स्वाधीनता सेनानी थे। वे गरीबों व दलितों के संरक्षक माने जाते थे। उन्होंने स्त्री-शिक्षा और विधवा विवाह पर काफ़ी ज़ोर दिया। ईश्वर चन्द्र विद्यासागर ने 'मेट्रोपोलिटन विद्यालय' सहित अनेक महिला विद्यालयों की स्थापना। नैतिक मूल्यों के संरक्षक और शिक्षाविद विद्यासागर जी का मानना था कि अंग्रेज़ी और संस्कृत भाषा के ज्ञान का समन्वय करके ही भारतीय और पाश्चात्य परंपराओं के श्रेष्ठ को हासिल किया जा सकता है। उनके अनवरत प्रचार से ही 'विधवा पुनर्विवाह क़ानून-1856' आखिरकार पारित हो सका। उन्होंने 'बहुपत्नी प्रथा' और 'बाल विवाह' के ख़िलाफ़ भी संघर्ष छेड़ा। देशभक्ति की भावना भी उनमें आत्मा की गहराई तक विद्यमान थी।
महादेव गोविन्द रानाडे भारत के प्रसिद्ध राष्ट्रवादी, समाज सुधारक, विद्वान और न्यायविद थे। रानाडे ने समाज सुधार के कार्यों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था। प्रार्थना समाज, आर्य समाज और ब्रह्म समाज का इनके जीवन पर बहुत प्रभाव था। इन्होंने 'भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस' की स्थापना का भी समर्थन किया था। रानाडे स्वदेशी के समर्थक और देश में ही निर्मित वस्तुओं का प्रयोग करने के पक्षधर थे। वे मानते थे कि देश काल के अनुसार धार्मिक आचरण बदलते रहते हैं। उन्होंने स्त्री शिक्षा का प्रचार किया। वे बाल विवाह के कट्टर विरोधी और विधवा विवाह के समर्थक थे।
चक्रवर्ती राजगोपालाचारी स्वतन्त्र भारत के द्वितीय गवर्नर जनरल और प्रथम भारतीय गवर्नर जनरल थे। अपने अद्भुत और प्रभावशाली व्यक्तित्व के कारण 'राजाजी' के नाम से प्रसिद्ध महान स्वतंत्रता सेनानी, समाज सुधारक, गांधीवादी राजनीतिज्ञ चक्रवर्ती राजगोपालाचारी को आधुनिक भारत के इतिहास का 'चाणक्य' माना जाता है। वकालत के दिनों में स्वामी विवेकानंद जी के विचारों से प्रभावित होकर वे वकालत के साथ साथ समाज सुधार के कार्यों में भी सक्रिय रूप से रुचि लेने लगे।
उन्होंने पूरे जोश से मद्रास सत्याग्रह आन्दोलन का नेतृत्व किया और गिरफ्तार होकर जेल गये। सन् 1921 में गाँधी जी ने नमक सत्याग्रह आरंभ किया। इस आन्दोलन के तहत उन्होंने जगजागरण के लिए पदयात्रा की और वेदयासम के सागर तट पर नमक क़ानून का उल्लंघन किया। उन्होंने खुद को पूर्ण रूप से देश के स्वतंत्रता संग्राम के लिये समर्पित कर दिया।
मदनमोहन मालवीय महान स्वतंत्रता सेनानी, राजनीतिज्ञ और शिक्षाविद ही नहीं, बल्कि एक बड़े समाज सुधारक भी थे। उन्होंने दलितों के मन्दिरों में प्रवेश निषेध की बुराई के ख़िलाफ़ देशभर में आंदोलन चलाया। पं. मदन मोहन मालवीय ने 'प्रयाग हिन्दू सभा' तथा 'भारत-धर्म महामण्डल' की स्थापना कर सनातन धर्म के प्रचार का कार्य किया।
1928 में उन्होंने लाला लाजपत राय, जवाहर लाल नेहरू और अन्य स्वतंत्रता सेनानियों के साथ मिलकर साइमन कमीशन का ज़बर्दस्त विरोध किया और इसके ख़िलाफ़ देशभर में जनजागरण अभियान भी चलाया। उन्होंने 1916 के लखनऊ पैक्ट के तहत मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचक मंडल का विरोध किया। मालवीय जी ने 'सत्यमेव जयते' के नारे को जन-जन में लोकप्रिय बनाया। मालवीय जी दो बार 1909 तथा 1918 ई. में कांग्रेस के अध्यक्ष हुए। वे शुद्धि तथा अस्पृश्यता निवारण में विश्वास करते थे। वे तीन बार हिन्दू महासभा के अध्यक्ष चुने गये। उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि 1915 ई. में 'काशी हिन्दू विश्वविद्यालय' की स्थापना है।
रबींद्रनाथ टैगोर एक बांग्ला कवि, कहानीकार, गीतकार, संगीतकार, नाटककार, निबंधकार और चित्रकार थे। भारतीय संस्कृति के सर्वश्रेष्ठ रूप से पश्चिमी देशों का परिचय और पश्चिमी देशों की संस्कृति से भारत का परिचय कराने में टैगोर की बड़ी भूमिका रही तथा आमतौर पर उन्हें आधुनिक भारत का असाधारण सृजनशील कलाकार माना जाता है। जिन्हें 1913 में साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया।
रवीन्द्रनाथ टैगोर एकमात्र कवि हैं जिनकी दो रचनाएँ दो देशों का राष्ट्रगान बनीं- भारत का राष्ट्र-गान “जन गण मन” और बांग्लादेश का राष्ट्रीय गान “आमार सोनार बांग्ला”। 1901 में टैगोर ने पश्चिम बंगाल के ग्रामीण क्षेत्र में स्थित शांतिनिकेतन में एक प्रायोगिक विद्यालय की स्थापना की। जहाँ उन्होंने भारत और पश्चिमी परंपराओं के सर्वश्रेष्ठ को मिलाने का प्रयास किया। 1921 में यह विश्व भारती विश्वविद्यालय बन गया। 1919 में हुए जलियाँवाला काँड से आहत होकर रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने निंदा करते हुए विरोध स्वरूप अपना 'सर' का खिताब लौटा दिया। रबीन्द्रनाथ ठाकुर ने इस हत्याकाण्ड के मुखर विरोध किया और विरोध स्वरूप अपनी 'नाइटहुड' की उपाधि को वापस कर दिया था।
सर सैयद अहमद ख़ाँ मुस्लिम शिक्षक, विधिवेत्ता और लेखक, ऐंग्लो-मोहमडन ओरिएंटल कॉलेज अलीगढ़ (अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय), के संस्थापक थे। सर सैयद अहमद ख़ाँ ऐसे समाज सुधारक थे, जिन्होंने शिक्षा के लिए जीवन भर प्रयास किया। सर सैयद अहमद ख़ाँ ने लोगों को पारंपरिक शिक्षा के स्थान पर आधुनिक ज्ञान हासिल करने के लिए प्रेरित किया क्योंकि वह जानते थे कि आधुनिक शिक्षा के बिना प्रगति संभव नहीं है। सैयद अहमद ख़ाँ ने सदा ही कहा कि, 'हिन्दू और मुसलमान भारत की दो आँखें हैं'। उन्होंने 1863 में गाजीपुर में भी एक आधुनिक स्कूल और 'साइंटिफ़िक सोसाइटी' की स्थापना की।
महात्मा गाँधी को ब्रिटिश शासन के ख़िलाफ़ भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का नेता और 'राष्ट्रपिता' माना जाता है। राजनीतिक और सामाजिक प्रगति की प्राप्ति हेतु अपने अहिंसक विरोध के सिद्धांत के लिए उन्हें अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हुई। मोहनदास करमचंद गांधी भारत एवं भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के एक प्रमुख राजनीतिक एवं आध्यात्मिक नेता थे।
गांधी जी केवल राजनीतिक स्वतंत्रता ही नहीं चाहते थे, अपितु जनता की आर्थिक, सामाजिक और आत्मिक उन्नति भी चाहते थे। इसी भावना से उन्होंने 'ग्राम उद्योग संघ', 'तालीमी सघ' एवं 'गो रक्षा संघ' की स्थापना की थी। हरिजनों के लिए अन्य हिन्दुओं के साथ समानता प्राप्त करने के लिए गांधी जी ने 'मंदिर प्रवेश' कार्यक्रम को सर्वाधिक प्राथमिकता दी।
महात्मा गांधी ने स्त्रियों की स्थिति सुधारने के लिए और दहेज प्रथा उन्मूलन के लिए अथक प्रयत्न किया। वे बाल विवाह और पर्दा प्रथा के कटु आलोचक थे। वे विधवा पुर्नविवाह के समर्थक और शराब बंदी लागू करने के बहुत इच्छुक थे। अहिंसात्मक असहयोग तथा सविनय अवज्ञा आंदोलन की उनकी नीति भारतीय परिस्थितियों के अधिक अनकूल थी। भारत सचिव मांटेग्यू ने गांधी जी को 'हवा में रहना वाला शुद्ध दार्शनिक' कहा था, लेकिन उसी दार्शनिक ने अंग्रेज़ साम्राज्य की जड़ें हिला दीं तथा समाज में मौलिक परिवर्तन कर दिया।
महात्मा गांधी ने जिस प्रकार सत्याग्रह, शान्ति व अहिंसा के रास्तों पर चलते हुये अंग्रेजों को भारत छोड़ने पर मजबूर कर दिया, उसका कोई दूसरा उदाहरण विश्व इतिहास में देखने को नहीं मिलता। तभी आइंस्टीन ने कहा था कि -‘‘हज़ार साल बाद आने वाली नस्लें इस बात पर मुश्किल से विश्वास करेंगी कि हाड़-मांस से बना ऐसा कोई इन्सान धरती पर कभी आया था।’’ संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी वर्ष 2007 से गाँधी जयन्ती को ‘विश्व अहिंसा दिवस’ के रूप में मनाये जाने की घोषणा की।
डॉ. भीमराव आम्बेडकर एक बहुजन राजनीतिक नेता, और एक बौद्ध पुनरुत्थानवादी भी थे। आम्बेडकर ने अपना सारा जीवन हिन्दू धर्म की चतुवर्ण प्रणाली, छुआछूत के विरुद्ध संघर्ष और भारतीय समाज में सर्वत्र व्याप्त जाति व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष, दलितों के बीच शिक्षा का प्रसार और राजनीतिक अधिकारों के लिया संघर्ष में बिता दिया। आम्बेडकर ने 'ऑल इण्डिया क्लासेस एसोसिएशन' का संगठन किया विदेशी शासन काल में अस्पृश्यता विरोधी संघर्ष पूरी तरह से सफल नहीं हो पाया। सन् 1932 में पूना समझौते में गांधी और आम्बेडकर, आपसी विचार–विमर्श के बाद एक मध्यमार्ग पर सहमत हुए। वह हरिजनों के लिए सरकारी विधान परिषदों में विशेष प्रतिनिधित्व प्राप्त करने में भी सफल हुए। उन्होंने मुस्लिम लीग की मुसलमानों के लिए एक अलग देश पाकिस्तान की माँग की आलोचना की। भारत के स्वाधीन होने पर जवाहर लाल नेहरू के मंत्रिमंडल में विधि मंत्री हुए। भारत के संविधान के निर्माण में उनकी प्रमुख भूमिका थी जिसमें उन्होंने अछूतों के साथ भेदभाव को प्रतिबंधित किया।
डॉ एनी बेसेन्ट अग्रणी थियोसोफिस्ट, महिला अधिकारों की समर्थक, लेखक, वक्ता एवं भारत-प्रेमी महिला थीं। सन 1917 में वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्षा भी बनीं। उनका विचार था कि अच्छाई के मार्ग का निर्धारण बिना अध्यात्म के संभव नहीं। कल्याणकारी जीवन प्राप्त करने के लिये मनुष्य की इच्छाओं को दैवी इच्छा के अधीन होना चाहिये। राष्ट्र का निर्माण एवं विकास तभी सम्भव है जब उस देश के विभिन्न धर्मों, मान्यताओं एवं संस्कृतियों में एकता स्थापित हो। सितम्बर 1916 में उन्होंने होमरूल लीग की स्थापना की और स्वराज्य के आदर्श को लोकप्रिय बनाने के लिये प्रचार किया।
विनोबा भावे महात्मा गांधी के अनुयायी, भारत के एक सर्वाधिक जाने-माने समाज सुधारक एवं 'भूदान यज्ञ' नामक आन्दोलन के संस्थापक थे। विनोबा भावे ने वेद, वेदांत, गीता, रामायण, क़ुरआन, बाइबिल आदि अनेक धार्मिक ग्रंथों का उन्होंने गहन गंभीर अध्ययन किया। सन् 1921 से लेकर 1942 तक अनेक बार जेल यात्राएं हुई। 11 अक्टूबर 1940 को गॉंधी द्वारा व्यक्तिगत सत्याग्रह के प्रथम सत्याग्रही के तौर पर विनोबा को चुना गया। ब्रिटिश सरकार द्वारा 21 अक्टूबर को विनोबा को गिरफ्तार किया गया। विनोबा भावे अहिंसा और मानवाधिकारों के प्रबल समर्थक थे। विनोबा भावे ने 1951 में गाँव-गाँव घूमकर भूमिहीन लोगों के लिए भूमि का दान करने की अपील करते हुए 'भूदान आंदोलन' चलाया।
राष्ट्र के निर्माण एवं विकास के लिये इन सभी समाज सुधारकों ने अहम भूमिका निभाई, भारत की स्वतन्त्रता में न सिर्फ क्रांतिकारियों और स्वतंत्रता सेनानियों का अपितु इन समाज सुधारकों का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा। भारत के इतिहास में इनकी भूमिका अतुलनीय है, इन्होंने न सिर्फ समाज में व्याप्त बुराइयों और कुप्रथाओं का विरोध किया अपितु विदेशी शासन के खिलाफ भी आवाज बुलंद की। इन्होने अंग्रेजों के खिलाफ अनेक आंदोलनों का नेतृत्व किया और उन्हे सफल बनाने के लिये अपना जीवन भी कुर्बान कर दिया। इनके द्वारा भारतीयों के सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक और आर्थिक जीवन स्तर को उठाने के लिये और निम्न वर्ग के उत्थान, और भारत की आजादी के लिये निरंतर प्रयत्न किये गये। इन सभी के सम्मिलित प्रयासों से भारत स्वतंत्र हुआ और उसे अनेक सामाजिक बुराइयों और कुप्रथाओं से मुक्ति मिली। भारत की आने वाली पीढी इनके योगदान को कभी नही भुला सकेगी
भारतीय राष्ट्रवाद में गांधी की भूमिका
प्रथम विश्व युद्ध के प्रभाव: हालांकि भारत प्रत्यक्ष रूप से प्रथम विश्व युद्ध में शामिल नहीं था लेकिन उस युद्ध में इंगलैंड के शामिल होने के कारण भारत पर भी असर पड़ा था। युद्ध के कारण इंगलैंड के रक्षा संबंधी खर्चे में बढ़ोतरी हुई थी। उस खर्चे को पूरा करने के लिये कर्ज लिये गये और टैक्स बढ़ाए गये। अंग्रेजी सरकार ने कस्टम ड्युटी और इनकम टैक्स को बढ़ाया ताकि अतिरिक्त राजस्व संग्रह किया जा सके। युद्ध के दौरान चीजों की कमतें बढ़ गईं। 1913 से 1918 के बीच अधिकतर चीजों के दाम दोगुने हो गये। इससे आम आदमी की मुश्किलें बढ़ गईं। लोगों को जबरन सेना में भर्ती किया गया। इससे ग्रामीण इलाकों में काफी आक्रोश था।
भारत के कई भागों में उपज खराब होने के कारण भोजन की कमी हो गई। इंफ्लूएंजा की महामारी ने समस्या को और गंभीर कर दिया। 1921 की जनगणना के अनुसार, अकाल और महामारी के कारण 120 लाख से 130 लाख तक लोग मारे गए।
सत्याग्रह का अर्थ: महात्मा गांधी ने जनांदोलन का एक नायाब तरीका अपनाया जिसका नाम था सत्याग्रह। सत्याग्रह का सिद्धांत कहता था कि यदि कोई सही मकसद के लिये लड़ाई लड़ रहा हो तो उसे अपने ऊपर अत्याचार करने वाले से लड़ने के लिये ताकत की जरूरत नहीं होती है। गांधीजी का मानना था कि एक सत्याग्रही अपनी लड़ाई अहिंसा के द्वारा ही जीत सकता है।
गाँधीजी द्वारा आयोजित शुरु के कुछ सत्याग्रह आंदोलन:
1916 में चंपारण में किसान आंदोलन।
1917 में खेड़ा का किसान आंदोलन।
1918 में अहमदाबाद के मिल मजदूरों का आंदोलन।
रॉलैट ऐक्ट (1919):
रॉलैट ऐक्ट को इंपीरियल लेगिस्लेटिव काउंसिल ने 1919 में पारित किया था। भारतीय सदस्यों के विरोध के बावजूद यह ऐक्ट पारित हो गया था। इस ऐक्ट ने सरकार को राजनैतिक गतिविधियों को कुचलने के लिये असीम शक्ति दे दी थी। इस ऐक्ट के मुताबिक बिना ट्रायल के ही राजनैतिक कैदियों को दो साल तक के लिये बंदी बनाया जा सकता था।
रॉलैट ऐक्ट के विरोध में गांधीजी ने 6 अप्रैल 1919 को राष्ट्रव्यापी आंदोलन की शुरुआत की। गांधीजी ने हड़ताल का आह्वान किया जिसे भारी समर्थन मिला। विभिन्न शहरों में लोग इसके समर्थन में निकल पड़े। दुकानें बंद हो गईं और रेल कारखानों के मजदूर हड़ताल पर चले गये। अंग्रेजी हुकूमत ने इस आंदोलन के खिलाफ कठोर कदम उठाने का निर्णय लिया। कई स्थानीय नेताओं को बंदी बना लिया गया। महात्मा गांधी को दिल्ली में आने से रोका गया।
जलियांवाला बाग:
10 अप्रैल 1919 को अमृतसर में शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर पुलिस ने गोली चलाई। इससे गुस्साए लोगों ने जगह-जगह पर सरकारी संस्थानों पर आक्रमण किया। अमृतसर में मार्शल लॉ लागू कर दिया गया। अमृतसर की कमान जनरल डायर के हाथों में सौंप दी गई।
13 अप्रैल को पंजाब में बैसाखी का त्योहार मनाया जा रहा था। ग्रामीणों का एक समूह जलियांवाला बाग में लगे एक मेले में शरीक होने आया था। वह बाग चारों तरफ से बंद था और निकलने के रास्ते संकीर्ण थे। जनरल डायर ने निकलने के रास्ते बंद करवा दिये और भीड़ पर गोली चलाने का आदेश दिया। उस गोलीकांड में सैंकड़ो लोग मारे गये। इससे चारों तरफ हिंसा फैल गई। महात्मा गांधी हिंसा नहीं चाहते थे इसलिये उन्होंने आंदोलन वापस ले लिया।
आंदोलन के विस्तार की आवश्यकता:
रॉलैट सत्याग्रह मुख्य रूप से शहरों तक ही सीमित था। महात्मा गांधी को महसूस हुआ कि भारत में आंदोलन का विस्तार होना चाहिए। उनको लगता था कि ऐसा तभी संभव था जब हिंदू और मुसलमान एक मंच पर आ जाएँ।
खिलाफत आंदोलन:
खिलाफत के मुद्दे ने गांधीजी एक ऐसा अवसर दिया जिससे हिंदू और मुसलमानों को एक मंच पर लाया जा सकता था। प्रथम विश्व युद्ध में तुर्की की कराड़ी हार के बाद ऑटोमन के शासक पर कड़े संधि समझौते की अफवाह फैल चुकी थी। ऑटोमन का शासक मुस्लिम समुदाय का खलीफा भी हुआ करता था। खलीफा को समर्थन देने के लिये बंबई में मार्च 1919 में एक खिलाफत कमेटी बनाई गई। इस कमेटी के नेता थे दो भाई जिनके नाम थे मुहम्मद अली और शौकत अली। उनकी इच्छा थी कि महात्मा गांधी इस मुद्दे पर आंदोलन करें। 1920 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में खिलाफत के समर्थन में और स्वराज के लिये एक अवज्ञा आंदोलन शुरु करने का प्रस्ताव पारित हुआ।
वर्तमान समय में भारत में राष्ट्रवाद
राष्ट्रवाद को इन दिनों जानबूझकर बुरे तरीके से दिखाया जा रहा है, जिससे कि भारत के गौरवशाली अतीत की जड़ों को कमजोर किया जा सके. भारतीय राष्ट्रवाद कभी भी 'विरोधी' नहीं था और ना ही होगा.
'राष्ट्रवाद मानव जाति के सर्वोच्च आदर्शों, सत्यम, शिवम और सुंदरम से प्रेरित है.'
- नेताजी सुभाष चंद्र बोस
भारतीय या भारत सिर्फ जमीन का एक टुकड़ा भर नहीं है, जो एक ही धरती पर लोगों के आकर बस जाने और उनके लिए संविधान बना देने के बाद देश बन गया है. बल्कि ये चार हजार से अधिक सालों तक की एक सतत सभ्यता है, जिसने कई उतार-चढ़ाव देखे हैं.
इतिहास में दर्ज मेसोपोटामिया, ईरानी जैसी अन्य महान सभ्यताएं समय के साथ नष्ट हो गई लेकिन अपनी अनूठी क्षमता के चलते हमारी भारतीय सभ्यता बची रह गई. क्योंकि हमारी सभ्यता में धार्मिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक या विचारधारात्मक बदलावों के साथ समन्वय बिठाने की अनूठी क्षमता थी. दुनिया में शायद ही कहीं दो विपरीत विचारधाराओं के एक साथ फलने-फूलने और पालन किए जाने का उदाहरण दिखाई देता हो. एक ओर जहां हमारे यहां 'योगा' जैसी रूढ़िवादी आस्तिकता है, तो वहीं दूसरी तरफ 'चार्वाक' जैसी विचारधारा भी फलती-फूलती है जो नास्तिकता का प्रचार करता है!
प्राचीन समय में जब विपरीत विचारधारा या फिर धार्मिक विश्वास को मानने के कारण लोगों को दंड दिया जाता था तब भी लोगों ने ना सिर्फ दो धर्मों के बीच बल्कि धर्मों के अंदर की असमानता को भी स्वीकार किया. सिर्फ यही कारण है कि भारत एक राष्ट्र की श्रेणी में फिट नहीं बैठता. बल्कि इसके उलट इसने एक नई और प्रतिष्ठित श्रेणी का निर्माण किया जो 'सभ्यतावादी-राज्य' बनाता है. और इसलिए भारतीय राष्ट्रवाद पर किसी भी तरह की बात इसी संदर्भ में होनी चाहिए.
राष्ट्रवाद
चश्मा बदलें, सच्चाई दिखेगी
राष्ट्र, राज्यों के विपरीत एक राजनीतिक संस्था है. राष्ट्र और राज्य मिलकर एक ऐसी संस्था का निर्माण करते हैं जिनकी सांस्कृतिक और राजनीतिक सीमाएं एकदूसरे से मिलती हैं. राष्ट्रवाद का उत्थान सबसे पहले यूरोप में हुआ था, जहां एक भाषा / जातीयता के लोग एक राज्य में एक सरकार / शासन के अतंर्गत रहना चाहते थे. ये विचार अपने आप में नया था क्योंकि इसमें ऐसा माना गया था कि किसी दूसरी भाषा / जातीयता के लोग अलग होते हैं और इसलिए वो एक साथ नहीं रह सकते.
लेकिन भारत में मामला इससे बहुत अलग है. और समय बीतने के साथ इस महान भूमि ने विचारों, लोगों, संस्कृति और सभ्यताओं की बहुलता देखी है. यहां भगवान बुद्ध से लेकर गुरु नानक देव और महावीर तक की कहानियां हैं, कालिदास से लेकर तुलसीदास तक की चौपाई है, स्वामी विवेकानंद से लेकर महात्मा गांधी तक के ज्ञान का सागर है. यानी हमारे देश की जमीन में भिन्न प्रकार के फूल हैं और सबने एक माला में गुंथकर अपनी खुशबु से इस पावन धरती को महकाया है.
लेकिन साथ ही इसने अपनी आंतरिक कमजोरियों और अलगाववाद की वजह से कई शताब्दियों तक उपनिवेशवाद और गुलामी का दंश भी सहा है. इस गुलामी ने न सिर्फ लोगों के शरीर को गुलाम बनाया बल्कि उनकी सोच, उनके मन को भी गुलाम बना दिया. चापलूसी हमारी सोच का हिस्सा बन गई और भारतीयों ने ही भारत से जुड़ी हर चीज को नकारना शुरू कर दिया. फिर चाहे वो बात देश की संस्कृति, भाषा, शिक्षा प्रणाली या फिर मूल्यों की हो, हर बात में उन्होंने खोट निकालना शुरू कर दिया. दुख की बात ये है कि हमारी ये सोच अभी तक खत्म नहीं हुई है और इसी कारण से आज भी अधिकांश लोग भारतीय राष्ट्रवाद को पश्चिमी राष्ट्रवाद के चश्मे से ही देखते हैं.
हर किसी को ये याद रखना चाहिए कि यूरोप के विपरीत, भारतीय राष्ट्रवाद ने अंग्रेजों द्वारा देश के उपनिवेशवाद से जन्म लिया है. और विदेशों की तरह धर्म, क्षेत्र, जाति, वर्ग और लिंग की सीमाओं में बंटे सभी सामाजिक समूहों को राष्ट्रवाद की एक छत के नीचे 'भारत माता' या 'मदर इंडिया' के रूप में दिखाया गया था.
राष्ट्रीयता बनाम व्यक्तिवाद
राष्ट्रवाद की तरह व्यक्तिवाद भी ज्ञान और आधुनिकता के रूप में यूरोप में ही उभरा. यूरोप के व्यक्तिवाद में तर्क दिया गया कि व्यक्ति एक तर्कसंगत और सामाजिक-राजनीतिक गतिविधियों का केन्द्र है और इसलिए इंसान के अधिकारों को समूह के अधिकारों के आगे रखा जाना चाहिए. शायद इसलिए ही किसी व्यक्ति का अधिकार और कल्याण एक राष्ट्र का विरोधाभासी होता है.
भारतीय राष्ट्रवाद भूमि, शक्ति और लोगों के भौतिक विचारों पर आधारित नहीं है. बल्कि यह आध्यात्मिक प्रकृति का है जिसका आदर्श मानवता की सेवा करना है और पूरे विश्व को एक परिवार या 'महा उपनिषद' में स्वीकार किए जाने वाले 'वसुधैव कुतुंबकम' के रूप में मानना है.
हमारे यहां परिवार में सदस्यों को किसी कॉन्ट्रेक्ट से नहीं बल्कि प्रेम और करुणा के बंधन से बंधे होते हैं. और सदस्य के अधिकार अन्य सदस्य के अधिकारों की ही तरह पवित्र होते हैं. इसलिए अधिकार के उल्लंघन की संभावना शून्य नहीं तो न्यूनतम जरुर हो जाता है. भारतीय राष्ट्रवाद 'अद्वैत' की अवधारणा में विश्वास करता है जिसे स्वामी विवेकानंद ने भी स्वीकार किया है. विवेकानंद का कहना था कि पूरी दुनिया एक है. यह विचार संस्कृत के चार महाकव्यों में से एक में भी लिखा गया है- 'अहम ब्रह्मास्मि' या 'मैं ब्रह्मांड हूं', और इसलिए, दोनों के बीच कोई विरोध नहीं हो सकता है.
राष्ट्रवाद स्वतंत्रता और समानता का समर्थक है
राष्ट्रवाद को इन दिनों जानबूझकर बुरे तरीके से दिखाया जा रहा है जिससे कि भारत के गौरवशाली अतीत की जड़ों को कमजोर किया जा सके. भारतीय राष्ट्रवाद कभी भी 'विरोधी' नहीं था और ना ही होगा. फिर चाहे वो 'व्यक्तिगत विरोध' हो, 'दलित विरोधी', 'अल्पसंख्यक विरोधी' आदि हो. लेकिन ये हमेशा से ही 'स्वतंत्रता' का 'समर्थक' होगा. 'समानता का समर्थक' और 'विकास का समर्थक'.
संवैधानिक ढांचे के दायरे में रखकर इसे सुधारने की चर्चा हमेशा ही हो सकती है, लेकिन राष्ट्र की एकता और अखंडता के खिलाफ नारे लगाकर नहीं. जो दुर्भाग्य से भारत के कुछ विश्वविद्यालयों में किया जा रहा है. जब तक कि देश के सैनिक राज्य की संप्रभुता और अखंडता की रक्षा में तत्पर हैं तब तक देश में हर नागरिक के अधिकार सुरक्षित हैं. आज के समय में 'आजादी' के नारे लगाना फर्जी उदारवादियों के लिए फैशन बन गया है जो पाकिस्तान और चीन जैसे आतंकवादी पड़ोसियों और आतंकवादी संगठनों से हमारी सीमाओं की रक्षा करने वाले सैनिकों की कुर्बानी से बेखबर रहते हैं.
यह उनका दोहरा रूप ही है जो दूसरों को अपने 'राष्ट्रवाद' के लिए प्रमाण पत्र देने के लिए नहीं चाहते हैं, लेकिन वे कभी भी 'धर्मनिरपेक्ष', 'उदार', 'प्रगतिशील आदि होने का प्रमाण पत्र देने और लेने के लिए तैयार रहते हैं. कोई भी राष्ट्र ऐसे लोगों को नहीं चाहता जिसका एजेंडा भारत की बहुत पहचान और अस्तित्व पर सवाल उठाना ही रहा हो. कई बार तो ये लोग कुख्यात जासूसी एजेंसियों के लिए भी काम करते हैं. अगर राष्ट्र को धमकी दी जाती है, तो सबले पहले व्यक्तिगत अधिकार को नुकसान पहुंचता है.
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