कहीं हमारा देश गलत दिशा में तो नहीं बढ़ रहा? यह मामूलन एक विचार ही नहीं बल्कि बहुत ही गहरा सवाल है, जिससे डरकर हमारे मंत्री एवं नेता भी दुम दबाकर भागते हैं और क्यों ना भागे? आखिर यह सवाल उनकी गद्दी जो छीन सकता है, यह सवाल सरकारें बदल सकता है, यह सवाल भारत के वर्तमान और भविष्य की पूर्णतः तस्वीर बदलने के काबिल है। हां, बस यह सवाल एक चीज़ छोड़कर सब बदल सकता है, जो है ज़मीन स्थल की सच्चाई।
अब जब हम समझ गए हैं कि हम यहां किस प्रश्न की बात कर रहे हैं और वह भारत के लिए कितना महत्वपूर्ण है, तो आइये जानते हैं कि इसका जवाब क्या है? आज भारत सिर्फ एक या दो नहीं बल्कि अनेक सामाजिक बीमारियों से जूझ रहा है, जिसने देश की हालत को अस्त-व्यस्त कर दिया है। आइये देखते हैं कि वह कौन-कौन सी विपदाएं हैं, जिसके तले देश बर्बादी की और झुकता जा रहा है।
#सांप्रदायिक_तनाव-
आज देश के हालत इस कदर हो गए हैं कि एक इंसान की जान की कीमत कोड़ियों के दाम से भी कम हो गयी है। धर्म के नाम पर अल्पसंख्यक विभागों के ऊपर दंगे और हमले किये जा रहे हैं। भारत में सांप्रदायिक दंगों का इतिहास बहुत पुराना है. भारत में सांप्रदायिक दंगों की शुरुआत संभवत: सन 1895 और 1899 में कज्हुहुमालाई (Kazhuhumalai) और सिवाकासी (Sivakasi) में होने वाले दंगों से शुरू हुई. भारत विभाजन से पहले कोलकाता में सन 1946 में जातिगत हिंसा हुई, जिसको “सीधी कार्रवाई दिवस” (Direct Action Day) से भी जाना जाता है. इसके अलावा नागपुर के दंगे (सन 1927), विभाजन के दंगे (सन 1947), रामनाद दंगे (सन 1957) और 2006 में महाराष्ट्र में घटित दलित दंगे शामिल हैं. यह है भारत में अब तक हुए सबसे भयंकर जातिगत दंगों की सूची, जिन्होंने भारत की एकता और सांप्रदायिक सदभाव को बुरी तरह प्रभावित किया
सन 1946 में कलकत्ता में हुए इन दंगों को “डायरेक्ट एक्शन दिवस” के नाम से भी जाना जाता है. यह दंगे भारत में हिंदू-मुस्लिम समुदाय में होने वाली हिंसा के परिणामस्वरूप हुए थे. उस समय भारत ब्रिटिश शासन के अधीन था. इन दंगों में 4,000 लोगों ने अपनी जानें गंवाई थी और 10,000 से भी ज़्यादा लोग घायल हुए थे.
सिख-विरोधी दंगे, सन 1984
इस दंगों की शुरुआत तब हुई थी, जब इंदिरा गांधी की 31 अक्टूबर 1984 को उनके सिख अंगरक्षकों ने हत्या कर दी थी. इंदिरा गांधी की हत्या के अगले ही दिन इन दंगों की शुरुआत हो गई और यह दंगे कई दिनों तक चले, जिसमें 800 से भी ज़्यादा सिखों की हत्या कर दी गई. भारत की राजधानी दिल्ली और यमुना नदी के आसपास के इलाके इन दंगों से बुरी तरह से प्रभावित हुए थे.
कश्मीर दंगे, सन 1986
इन सांप्रदायिक दंगों की शुरुआत 1986 में कश्मीर में ज़्यादा मुस्लिम आबादी वाले क्षेत्र अनंतनाग में हुई थी. यह दंगे वहां के रहने वाले मुस्लिम कट्टरपंथी द्वारा हिंदुओं को कश्मीर से बाहर निकालने के लिए किए गए थे. इन दंगों में 1000 से भी ज़्यादा लोगों की जानें गई थी और कई हज़ार हिंदू बेघर हो गए थे.
वाराणसी दंगे, सन 1989
हिंदुओं के इस पवित्र शहर में क्रमवार 1989, 1990 और 1992 में भयंकर दंगे हुए थे. यह दंगे हिंदू और मुस्लिम समुदाय के बीच हुए थे. 1989 में वाराणसी में हिंदू और मुस्लिम समुदाय के बीच हुए इस दंगे में बहुत से लोगों ने अपनी जान गंवाई थी.
भागलपुर दंगे, सन 1989
भारत की आज़ादी के बाद से होने वाले यह दंगे सबसे कुख्यात दंगों में से एक थे. यह दंगे अक्टूबर 1989 को भागलपुर में हुए थे. इन दंगों में 1000 से भी ज़्यादा निर्दोष लोगों ने अपनी जानें गंवाई थी. यह हिंसावादी दंगे हिंदुओं और मुस्लिम समुदाय के लोगों के बीच हुए थे.
मुंबई दंगे, सन 1992
मुंबई में होने वाले यह दंगे सबसे भीषण दंगों में से एक थे. इन दंगों की शुरुआत दिसंबर 1992 में हुई और यह दंगे जनवरी 1993 तक चले. यह दंगे एक बार फिर हिंदू और मुस्लिम समुदाय के लोगों के बीच हुए थे. इन दंगों में 1000 से भी ज़्यादा लोगों की मौत हुई थी. इन दंगों की मुख्य वजह बाबरी मस्जिद को तोड़ा जाना था. 1993 में इसी सिलसिले में सीरियल बम धमाके भी किए गए थे, जिनमें सैकड़ों लोगों की जान गई.
गुजरात दंगे, सन 2002
यह दंगे भारत के इतिहास में होने वाले सबसे भयंकर दंगों में से थे. इन दंगों की शुरुआत तब हुई, जब सन 2002 में साबरमती एक्सप्रेस ट्रेन को गुजरात के गोधरा में आग लगा दी गई थी, जिसमें 59 से ज़्यादा हिंदू तीर्थ-यात्री मारे गए थे, इसके बाद हिंदू और मुसलमानों के बीच हिंसक दंगे हुए, जिसमें 2,000 से भी ज़्यादा लोगों की जानें गई थी.
अलीगढ़ दंगे, सन 2006
अलीगढ़ शहर को उत्तर प्रदेश का सांप्रदायिक दंगों से ग्रस्त शहर भी कहा जाता है. यहां 5 अप्रैल 2006 को हिंदू और मुसलमानों के बीच बहुत हिंसक दंगे हुए थे. यह दंगे हिंदुओं के पवित्र दिवस राम नवमी को हुए थे, जिसमें 6-7 लोगों की मौत हो गई थी.
देगंगा दंगे, सन 2010
यह दंगे पश्चिम बंगाल में पढ़ते देगंगा शहर में 6 सितम्बर 2010 को हुए थे. इन दंगों में मुसलमानों की भीड़ ने हिंदुओं पर हमला कर दिया था. इस भीड़ ने कई हिन्दू मंदिरों को तोड़ दिया था और उन मंदिरों में पड़े हुए खजाने को लूट लिया था. इससे पहले भी 2007 में ऐसे ही दंगे पश्चिम बंगाल में हुए थे.
असम दंगे, सन 2012
यह दंगे जुलाई 2012 को भारतीय बोडोस और बांग्लादेश से भारत आ रहे मुसलमानों के बीच हुए थे. इन हिंसक दंगों में 80 से ज़्यादा लोगों की मौत हो गयी थी. इन दंगों में 1 लाख से ज़्यादा लोग बेघर हो गए थे, जिन्होंने अभी तक राहत शिवरों में शरण ली हुई है. असम नरसंहार मानव की मानव के खिलाफ क्रूरता का एक उदाहरण है.
मुज़फ्फरनगर दंगे, सन 2013
यह दंगे भी हिंदू और मुसलमानों के बीच उत्तर प्रदेश के मुज़फ्फरनगर शहर में हुए थे. इन दंगों में 48 लोगों की जान गयी थी और 93 लोग घायल हुए थे.
दिल्ली में दंगा 2020
बड़े पैमाने पर होनेवाली जन-हिंसा के बारे में लिखना काफी जटिलता भरा काम है. खबरनबीसों के लिए, खासतौर पर जो निष्पक्ष और सटीक तरीके से ‘वाजिब’ शब्दों का इस्तेमाल करते हुए रिपोर्ट करना चाहते हैं, उनके लिए यह एक कठिन स्थिति है.रिपोर्टर के लिए भी सतत तरीके से ऐसी पदावली का इस्तेमाल कर पाना कठिन होता है, जो पाठकों की मनोवृत्ति के अनुरूप और विचारधारा से मुक्त हो. ज्यादातर समय कोशिश इस तरह से लिखने की होती है कि उसमें वैचारिकता से लदे हुए शब्द जरूरत से ज्यादा न हों.सोशल मीडिया पर इस बात को लेकर टिप्प्णियां की गई हैं कि क्यों दिल्ली की हिंसा को ‘दंगा’ नहीं कहा जाना चाहिए. एक ने कहा कि सार्वजनिक हिंसा के लिए दंगा शब्द का इस्तेमाल उपनिवेशी शक्तियों द्वारा किया जाता था.एक पाठक ने कहा कि अपने बड़े हिस्से में यह हिंसा एकतरफा थी और मुसलमानों को इसका खासतौर पर निशाना बनाया गया. इसलिए इसे सिर्फ हिंदुत्ववादियों द्वारा की गई हिंसा का नाम दिया जाना चाहिए.’More in Featured :दिल्ली दंगा: चार्जशीट में भाजपा नेता पर 25 वर्षीय मुस्लिम युवक की हत्या का आरोपतमिलनाडु: हिरासत में पिता-पुत्र की मौत मामले में फरार पुलिसकर्मी गिरफ़्तारभारतीय मछुआरों की हत्या के आरोप में दो इतालवी नौसैनिकों पर भारत में नहीं चलेगा मुक़दमाकोविड-19: लगातार दूसरे दिन संक्रमण के नए मामले रिकॉर्ड स्तर पर, पहली बार 22 हज़ार के पारबिहार: शादी के दो दिन बाद कोरोना से जान गंवाने वाले दूल्हे के पिता के ख़िलाफ़ केस दर्जजून में राष्ट्रीय महिला आयोग को महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराधों की सर्वाधिक शिकायतें मिलींकुछ लोगों द्वारा ‘नरसंहार’ शब्द का भी इस्तेमाल किया गया है. ये सब दिलचस्प टिप्पणियां हैं, मगर इनमें से कोई भी समस्याओं से खाली नहीं है.दरअसल मीडिया रिपोर्टिंग में संक्षेपीकरण से काम चलाया जाता है और दंगा सबसे ज्यादा इस्तेमाल किया जाने वाला पद है, भले ही इस शब्द से पुलिस-प्रशासन द्वारा बीच-बचाव की कोशिशों के बावजूद दो पक्षों द्वारा आपस में मारकाट करने की छवि उभरती है. लेकिन हमें मालूम है कि दिल्ली में ऐसा नहीं हुआ.कोई भी अनुभवी पुलिसकर्मी आपको यह बताएगए कि अगर पुलिस चाहे तो वह चंद घंटों के भीतर ऐसी हिंसा पर काबू पा सकती है. इस मामले में- और भारत में अतीत में हुए ऐसे कई मामलों में- पुलिस बस तमाशबीन बनकर नहीं रही है बल्कि बेबस और बेकसूर लोगों के खिलाफ हिंसा करने वालों का इसने खुलकर साथ दिया है.जहां तक आम आदमियों को प्रभावित करने वाली हिंसा और संघर्ष को संक्षेप में व्यक्त करने की बात है, तो ‘दंगा’ शब्द से काम चलाया जा सकता है, हालांकि यह आदर्श नहीं है. लेकिन जरूरत महज मीडिया रपटों के परे देखने और यह विचार करने की है कि आखिर दिल्ली में हुई हिंसा का ताल्लुक किस चीज से है?इससे पहले भी हथियारबंद समूहों द्वारा संगठित तरीके से अल्पसंख्यक समुदायों के खिलाफ हिंसा करने की घटनाएं हुई हैं. 1984, 1992-93 और 2002 की यादें भारतीयों के जेहन से आज तक मिटी नहीं हैं.इन सभी मामलों में, यहां तक कि उन मामलों में भी जिनमें पलटवार किया गया- जैसा कि 1992-93 में देखा गया, अंत में मौतों, घरों के ध्वंस, दुकानों/कारोबार के जलाए जाने के हिसाब से सबसे ज्यादा नुकसान अल्पसंख्यक समुदायों को उठाना पड़ा.दिल्ली की हिंसा में भी इसी पैटर्न का दोहराव हुआ है- मकसद सिर्फ मारना या अपंग बनाना नहीं है, बल्कि उनके पूजास्थलों पर और खासतौर पर उनके कार्यस्थलों पर हमला करना और इस तरह से उन्हें आर्थिक तौर पर तबाह कर देना है. यह सब अचूक तरीके से किया जाता है- अक्सर हमलावर गिरोहों के पास मुस्लिमों घरों और दुकानों की सूची होती है.फिर भी दिल्ली के दंगे काफी अलग भी हैं. इसे पिछले छह वर्षों में जो कुछ हुआ है, और खासतौर पर पिछले एक साल में जो हुआ है, उसके संदर्भ में भी देखे जाने की जरूरत है.यह ‘मुसलमानों की समस्या’ का हमेशा के लिए इलाज करने की बड़ी कोशिश का हिस्सा है, जो संघ परिवार और उसके अधीनस्थ काम करने वाली हिंदुत्ववादी शक्तियों और उनके अनगिनत समर्थको का एक वर्षों से संजोया हुआ सपना है.लगभग एक सदी से आरएसएस नेताओं की सारी सोच इस बात पर केंद्रित रही है कि मुसलमानों को किस तरह से अधीन बनाया जाए कि वे दोयम दर्जे के अधिकारविहीन नागरिक बन जाएं क्योंकि अपनी तमाम चाहतों के बावजूद उनसे पूरी तरह से छुटकारा पाना मुश्किल है.पिछले सत्तर सालों में संघ सत्ता केंद्र से बाहर रहा, लेकिन जब और जहां इसे मौका मिला, मसलन गुजरात में, इसने उन्हें खत्म करने की भरसक कोशिश की. आज उस राज्य में मुसलमान होना रोज अपमान का दंश झेलना है. उन्हें यह निरंतर याद दिलाया जाता है कि उनकी कोई हैसियत नहीं है.संघ परिवार को जिस घड़ी का इंतजार वर्षों से था, वह घड़ी 2014 में आई जब नरेंद्र मोदी- जिनकी छत्रछाया में गुजरात में मुस्लिम विरोधी हिंसा को बेरोक-टोक अंजाम दिया गया- प्रधानमंत्री बने.उनके पहले कार्यकाल में बड़े पैमाने पर जनसंहार की कोई घटना तो नहीं हुई, लेकिन इस दौरान देश में लिंचिंग की अनगिनत घटनाएं हुईं और मुस्लिम विरोधी अन्य तरह हिंसा के अलावा भाजपा नेताओं द्वारा सांप्रदायिक भाषणबाजी में इजाफा साफतौर पर देखा गया.इसने एक ऐसा माहौल बनाया जिसमें अल्पसंख्यकों के बारे में बेहद घृणित बातें करना सामान्य बात हो गयी. यहां तक कि मोदी ने भी चुनाव अभियानों के दौरान प्रधानमंत्री का अपना लिबास उतार फेंका.मुस्लिम विरोधी पूर्वाग्रह तो थोड़ा-बहुत पहले से ही मौजूद था. ऐसे में उनके खिलाफ सतत तरीके से चलाए गए इस अभियान को लहलहाने के लिए उपजाऊ जमीन मिल गई.2019 में भारी बहुमत के साथ मोदी की वापसी का साफतौर पर यह मतलब था कि उनके समर्थकों के लिए सांप्रदायिकता कोई समस्या नहीं थी, बल्कि उन्होंने इसे हिंदुत्ववादी परियोजना पर मुहर लगने के तौर पर देखा. और पार्टी और इसके नेताओं ने निराश नहीं किया है.असम में नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर (एनआरसी) जिसे मुसलमानों की छंटनी के मकसद से तैयार किया गया था, मगर जिससे बड़ी संख्या में हिंदू बाहर रह गए, से लेकर कश्मीर में 80 लाख लोगों पर बैठाई गयी पहरेदारी तक, जिसमें सभी संवैधानिक प्रावधानों की धज्जियां उड़ा दी गयीं, से लेकर अब दिल्ली की हिंसा तक- इन सभी का मकसद मुसलमानों को हाशिये पर धकेलना रहा है
पीटीआईमुस्लिम पहचान वाले शैक्षणिक संस्थानों जैसे जामिया मिलिया इस्लामिया और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी को निशाना बनाया गया है और नागरिकता संशोधन कानून (सीएए)-एनआरसी की कवायद पूरे देश में किए जाने की योजना है.हो सकता है कि विरोध प्रदर्शनों ने इसकी तारीख को थोड़ा आगे खिसका दिया हो, लेकिन क्या किसी को इस निजाम के आखिरी लक्ष्य को लेकर कोई संदेह हो सकता है?घटनाओं का क्रम, अगर लोकप्रिय टर्म का इस्तेमाल करते हुए कहें, तो ‘क्रोनोलॉजी’ महत्वपूर्ण है. दिल्ली की हिंसा किसी स्थानीय मसले के हाथ से निकल जाने के कारण हुआ स्वतः विस्फोट नहीं है.दिल्ली चुनाव प्रचार के दौरान केंद्र सरकार में मंत्री अनुराग ठाकुर ने ‘गोली मारो…’ जैसे नारों से जनता को उकसाया था, जिसका निशाना साफतौर पर शाहीनबाग के प्रदर्शनकारी थे. चुनाव के ठीक बाद कपिल मिश्रा (जो कभी आम आदमी पार्टी में थे) ने प्रदर्शनकारियों को हटाने के लिए दिल्ली सरकार को अल्टीमेटम दिया.हिंसा की शुरुआत इसके ठीक बाद हुई और न ही ठाकुर और न मिश्रा की जवाबदेही तय की गई. प्रधानमंत्री ने एक पथरीली चुप्पी ओढ़ रखी है. अमित शाह का आक्रामक अंदाज कायम है और पुलिस की तरफ से मुसलमानों के खिलाफ हिंसा जारी रखने की छूट मिली हुई है.इन सबके बीच न्याय के मंदिर के रखवालों ने हस्तक्षेप करने की कोई जल्दबाजी नहीं दिखाई है और उन्होंने यह ऐलान कर दिया है कि अदालतों से हिंसा को होने से रोकने की उम्मीद नहीं की जा सकती है. उधर सरकारी मीडिया अलग-अलग तरीकों से हिंदुओं पर मुस्लिमों के अत्याचार की कहानियां सुना रहा है.ये सब- मुसलमानों के खिलाफ एक माहौल बनाना, उनसे उनकी नागरिकता छीनने के लिए सभी विधायी उपकरणों का इस्तेमाल करना, लाखों लोगों के अधिकार और उनकी जमीन छीनकर उन पर पहरे लगाना, और अब समुदाय के सबसे निर्बल तबकों के खिलाफ योजनाबद्ध हिंसा करना- जातीय संहार की बड़ी योजना की तरफ ही इशारा करते हैं.जातीय संहार के परंपरागत रूपों में शारीरिक हिंसा के कई चरण हो सकते हैं, जैसा कि रवांडा या बोस्निया में देखा गया, जिसकी परिणति हजारों लोगों की मृत्यु में होती है. वैश्विक समुदाय इन्हें होने से नहीं रोक पाया, लेकिन उसने इनसे सबक लिया है.अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप तटस्थ हो सकते हैं, लेकिन कई देशों, जिनमें ईरान जैसे मित्र देश भी हैं, ने अपनी गहरी चिंता प्रकट की है. संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग द्वारा भारतीय अदालत में अर्जी लगाना, भारत के इतिहास में हुई ऐसी पहली घटना है.भारत में जो हम आज देख रहे हैं वह जातीय संहार का भारतीय संस्करण है. भारत जैसे बड़े देश में, जिसकी बुनियादी लोकतांत्रिक संस्थाओं पर टिकी है और जहां एक मजबूत संघीय ढांचा है, विविधता के बारे में कोई बात नहीं करना, 20 करोड़ मुसलमानों से छुटकारा पाना कोई आसान काम नहीं होगा.लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि संघ इस दिशा में कोशिश करना छोड़ देगा. संसद इसके काबू में है, सरकार वह चला रहा है और दूसरे संस्थान भी इसके प्रभाव में हैं. और कई राज्यों में इसके पास राजसत्ता की वास्तविक ताकत है. सबसे बड़ी बात, इसके पास धैर्य है. मीडिया इसके प्रोपगेंडा विभाग के तौर पर काम करता है. वायरस तेजी से फैल रहा है- एक दिन शायद लोग संघ के इस काम के लिए खड़े होंगे.दिल्ली की हिंसा रुक गई है लेकिन अल्पसंख्यकों को समाप्त करने की हिंदुत्ववादी परियोजना तो अभी बस शुरू ही हुई
#महिलाओं_पर_हिंसा-
आज भी भारत अपने 70 साल आज़ाद होने के बाद आज़ाद नहीं है। देश की लड़कियों पर अनेक ज़ुल्म किये जा रहे हैं। दहेज, बलात्कार, मानव तस्करी और ना जाने कितने भयानक दर्द ने हमारी लड़कियों को बांध रखा है। अगर इन सबसे भी कोई महिला बच जाए तो उसको हर कदम पर एहसास दिलाया जाता है कि वह मर्दों के बराबर नहीं है। उनको पुरुषों के बराबर आय नहीं दी जाती। उनपर घर से बाहर काम करने के नाम पर तंज कसे जाए हैं। कितना घिनौना दृश्य है इस देश का, जहां वैसे तो लक्ष्मी और दुर्गा की पूजा होती है, वहीं दूसरी तरफ नाबालिक मासूम चंद महीनों की बच्ची के साथ हैवानियत और दरिंदगी होती हैं।
भारत में हर 6 घंटे में एक महिला बन जाती है रेप का शिकार
भारत (India) के नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के अनुसार, 2010 के बाद से महिलाओं के खिलाफ अपराधों में 7.5 फीसदी वृद्धि हुई है. साल 2012 के दौरान देश में 24,923 मामले दर्ज हुए, जो 2013 में बढ़कर 33,707 हो गई. रेप पीड़ितों में ज्यादातर की उम्र 18 से 30 साल के बीच थी. हर तीसरे पीड़ित की उम्र 18 साल से कम है. वहीं, 10 में एक पीड़ित की उम्र 14 साल से भी कम है. भारत में हर छह घंटे में एक लड़की का रेप हो जाता है. महिलाओं के साथ रेप के मामले में 4,882 की संख्या के साथ 2017 में मध्य प्रदेश सबसे आगे था. एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार] 2017 में देश में 28,947 महिलाओं के साथ बलात्कार की घटना दर्ज की गईं. इस मामले में उत्तर प्रदेश 4,816 और महाराष्ट्र 4,189 रेप की घटनाओं के साथ देश में दूसरे व तीसरे स्थान पर था. नाबालिग बच्चियों के साथ रेप के मामले में भी मध्य प्रदेश देश में सबसे ऊपर है. राज्य में ऐसे 2,479 मामले दर्ज किए गए, जबकि महाराष्ट्र 2,310 और उत्तर प्रदेश 2,115 ऐसी घटनाओं के साथ दूसरे व तीसरे स्थान पर रहे. पूरे देश में 16,863 नाबालिग बच्चियों के साथ रेप के मामले दर्ज किए गए थे. भारत में रेप के कुछ ऐसे मामले भी हुए, जिसने पूरी दुनिया को हिला दिया था. इनमें 2012 का निर्भया गैंगरेप, 2013 का 22 वर्षीय फोटो जर्नलिस्ट का गैंगरेप, 2015 का 71 वर्षीय नन का पश्चिम बंगाल के रानाघाट में गैंगरेप, 2016 का दलित लड़की की हत्या व रेप, 2018 का कठुआ रेप केस शामिल हैं.
5 साल 10 साल 12 साल के बच्चियों के साथ दुष्कर्म के किस से मिल जा रहे हैं खास बात यह है कि बालिका ग्रहों में रह रही बच्चियों को नेताओं तथा धार्मिक गुरु के द्वारा भी महिलाओं एवं बच्चियों का यौन शोषण हो रहा है अभी हाल ही की घटना है
#भ्रष्टाचार-
भारत अब भ्रष्टाचार का नमूना बन गया है, जहां हर कोई बस घूसखोरी में लगा पड़ा है। बड़े-बड़े नेता उद्योगपतियों से मिले हुए हैं, जो फिर नामचीन अपराधियों से जान पहचान रखते हैं। सारी सरकार मानों बस चंद लोगों की कमाई का साधन बन गयी है। इस कारण जनता का सरकार और लोकतंत्र पर से विश्वास उठता जा रहा है।
स्पेक्ट्रम घोटाला देश के इतिहास का शायद सबसे बड़ा घोटाला है। 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला 1 लाख 76 हजार करोड़ का बताया जाता है। उस दौरान टेलीकॉम मंत्री रहे ए राजा ने अलग-अलग कंपनियों को 2 जी स्पेक्ट्रम के लाइसेंस कौड़ियों के दाम में बेच दिए थे। इस नीलामी की वजह से सरकार को 39 बिलियन डॉलर का नुकसान हुआ था। कैग ने अपनी रिपोर्ट में घोटाले में हुए नुकसान के बारे में रिपोर्ट सौंपी थी। इसके बाद ए. राजा को मंत्री पद से हटा दिया गया था। इस घोटाले की आंच पीएमओ तक पहुंची और खुद तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सुप्रीम कोर्ट में जाकर जवाब दिया था। वहीं डीएमके सांसद कनिमोझी, दयानिधि मारन, पर भी इस घोटाले की गाज गिरी। यह घोटाला इतना व्यापक था कि इसमें नेता, मंत्री, अफरस, उद्योगपति, मीडियाकर्मी आदि तक लिप्त थे।
कोयला घोटाला (1 लाख 86 हजार करोड़ रुपए का स्कैम)
अगर देखा जाए तो कोयला घोटाला देश का सबसे बड़ा घोटाला था। शुरुआती दौर में कोयला घोटाले को लेकर जो रिपोर्ट्स आईं थी उसकी राशि स्पेक्ट्रम घोटाले से 6 गुना ज्यादा थी। लेकिन बाद में सरकारी कंपनियों का नाम हटाने के बाद ये घोटाला 1 लाख 86 हजार करोड़ रुपए का निकला। अर्थात स्पेक्ट्रम घोटाले से 10 हजार करोड रुपए ज्यादा का घोटाला। शुरुआती रिपोर्ट में यह घोटाला 10 लाख करोड़ रुपए का बताया जा रहा था लेकिन बाद में जब सरकारी कंपनियों को इस लिस्ट से हटाया गया तो यह घोटाला 1.86 लाख करोड़ का निकला। इस घोटाले के बाद विपक्ष ने पीएम मनमोहन सिंह से उनका इस्तीफा मांग लिया था। जिस दौरान ये घोटाला हुआ था उस दौरान 2006 से 2009 के बीच कोयला मंत्रालय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पास था। आश्चर्य की बात तो ये है कि कोल ब्लाक आवंटन से जुड़ी फाइलें भी गायब हो गई थीं हालांकि बाद में 7 फाइलों का पता चला जिसे सीबीआई के सुपुर्द कर दिया गया।
चारा घोटाला (950 करोड़ रुपए का स्कैम)
बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव को लोग उनके चुटकी लेने के अंदाज से जानते हैं, उससे ज्यादा लोग लालू प्रसाद यादव को चारा घोटाले की वजह से जानते हैं। करीब 950 करोड़ के इस घोटाले में बिहार के एक नहीं बल्कि दो मुख्यमंत्रियों को इस्तीफा देना पड़ा था। लालू यादव से पहले जगन्नाथ मिश्र को भी चारा घोटले की वजह से इस्तीफा देना पड़ा था। चारा घोटाले की रिपोर्ट के मुताबिक पशुपालन विभाग ने 950 करोड़ रुपए का गबन किया था और जो पशु कभी थे ही नहीं उन पशुओं के नाम पर चारा, उपचार, दवाइयों के लिए भारी भरकम रकम आवंटित हुई थी। चारा घोटाले का ये खेल पुराना था लेकिन 1996 में यह गंदा खेल उजागर हो गया।
बोफोर्स घोटाला (40 मिलियन डॉलर का घोटाला)
देश में रक्षा मामलों की खरीद में यह शायद पहला घोटाला था। इस घोटाले ने 80 और 90 के दशक में देश की राजनीति को हिलाकर रख दिया था। 40 मिलियन डॉलर के इस घोटाले में, उस दौरान पीएम रहे राजीव गांधी का भी नाम आया था। हालांकि इस घोटाले में मुख्य आरोपी इटली के बिचौलिए ओत्तावियो क्वात्रोची को बनाया गया था। क्वात्रोची को डील में मुख्य आरोपी बनाया गया था लेकिन भारत सरकार उसे कभी भारत लाने में सफल नहीं हो पायी। 13 जून 2014 को इटली के मिलान शहर में क्वात्रोची की मौत हो गयी उसी के साथ बोफोर्स घोटालों के तमाम स्याह राज भी दफन हो गए।
कॉमनवेल्थ खेल घोटाला (70 हजार करोड़ का CWG स्कैम)
2010 में दिल्ली में कॉमनवेल्थ खेलों का भव्य आयोजन हुआ था लेकिन उसके घोटालों के चर्चे पहले से ही अखबारों की सुर्खियों में आ गए थे। जितनी चर्चा खेलों को लेकर नहीं हुई उससे ज्यादा चर्चा कॉमनवेल्थ खेलों में हुए घोटालों को लेकर हुई। खेलो के आयोजन में हुए घोटालों की जांच के लिए बनी समिति ने पाया कि फर्जी कंपनियों को पेमेंट दिया गया है,साधारण से साधारण चीजें जैसे लिक्विड सोप डिस्पेंसर 9,379 रुपए की दर पर किराए पर लिए गए हैं। खेलों से कुछ जुड़े उपकरण उनके निर्धारित दाम से कई गुना ज्यादा दाम पर सिर्फ किराए पर लिए गए थे। इस घोटाले में सीधे तौर पर कॉमनवेल्थ खेलों की समिति के अध्यक्ष सुरेश कलमाड़ी को जिम्मेदार मानते हुए गिरफ्तार किया गया था। कॉमनवेल्थ खेलों के घोटाले की कुल रकम 70 हजार करोड़ रुपए के आस-पास बताई जाती है।
टैक्स चोरी और कालाधन शोधन घोटाला (50 हजार करोड़ का घोटाला)
इस मामले में पुणे के एक मशहूर व्यापारी हसन अली को गिरफ्तार किया गया था। हसन अली पर टैक्स चोरी और हवाला के आरोपों में गिरफ्तार किया गया था। आयकर विभाग के अनुसार हसन अली और उसके सहयोगियों के पर 71 हजार 845 करोड़ रुपए का टैक्स बकाया था। ईडी (प्रवर्तन निदेशालय) की पूछताछ में हसन अली ने बताया कि उसके अकाउंट में जमा हजारो करोड़ रुपयों में से एक बड़ा हिस्सा देश के कुछ बड़े नेताओं और नौकरशाहों का है, उसने बताया कि इन नेताओं में महाराष्ट्र के पूर्व तीन मुख्यमंत्री भी शामिल हैं। हालांकि ईडी ने किसी भी नेता या नौकरशाह के नाम का खुलासा नहीं किया है। 2005-06 की बैंक स्टेटमेंट के अनुसार हसन अली खान के बैंक में 2 अरब डॉलर रुपए जमा थे।
आदर्श हाउसिंग घोटाला
कारगिल युद्ध के जवानों और उनकी विधवाओं के लिए मुंबई में आदर्श कोऑपरेटिव हाउसिंग सोसाइटी बनी थी। लेकिन यहां भी हमारे देश के नेता घोटाला-घपला करने से नहीं चूके, अशोक चव्हाण उस समय महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री थे, जिन्होंने अपने रिश्तेदारों को बहुत ही कम दाम पर ये घर दे दिए। सिर्फ वही नहीं, कई दूसरे नेता, मिलिट्री अधिकारी और अफसरों ने जम कर इन घरों की खरीदफरोख्त की। पूर्व आर्मी चीफ जनरल दीपक कपूर और एनसी विज, नेवी चीफ एडमिरल माधवेन्द्र सिंह और वाईस-चीफ जनरल शांतनु चौधरी को भी इस सोसाइटी में घर मिले। जबकि यह घर करगिल युद्ध के जवानों और उनकी विधावाओं के लिए था।
स्टैम्प पेपर घोटाला
स्टैम्प पेपर घोटाला शायद भारत के इतिहास का सबसे अजीब घोटाला था। अब्दुल करीम तेलगी जो फल-सब्ज़ियां बेचा करता था, उसने नकली स्टैम्प पेपर छाप कर करोड़ों का घपला किया। तेलगी पहले नकली पासपोर्ट बना कर लोगों को ठगता था, फिर उसने नकली स्टैम्प पेपर छाप कर बैंक, बीमा कंपनियों, विदेशी निवेशकों और शेयर ब्रोकिंग कंपनियों को बेचे। इस घोटाले की वजह से तेलगी ने 12 राज्यों में 20,000 करोड़ रुपयों की धोखाधड़ी की। इस घोटाले में तेलगी का साथ दिया पुलिस और सरकारी अफसरों ने। नार्को टेस्ट में साबित हुआ कि शरद पवार और छगन भुजबल जैसे दिग्गज नेता भी इस घोटाले में मिले हुए थे। तेलगी को 2007 में 13 साल की कड़ी सज़ा हुई और 202 करोड़ रुपए का जुर्माना भी लगा। तेलगी के 42 साथियों को भी 6 साल की सजा हुई थी।
आपको बता दें कि हाल ही में नकली स्टैंप पेपर घोटाले में शामिल अब्दुल करीम तेलगी की बेंगलुरु के एक अस्पताल में मौत हो गई। विक्टोरिया अस्पताल प्रबंधन के मुताबिक तेलगी की हालत कई दिनों से गंभीर चल रही थी और इसकी वजह से उसे आईसीयू में शिफ्ट किया गया था।
सत्यम घोटाला
कॉर्पोरेट जगत का ये शायद सबसे बड़ा घोटाला था जिसकी वजह से सत्यम कम्प्यूटर्स के चेयरमैन रामालिंगा राजू को इस्तीफा देना पड़ा और बाद में उन्हें जेल भी हुई। राजू ने अपनी कंपनी की बैलेंस शीट में घपला करना शुरू किया और प्रॉफिट बढ़ा-चढ़ा कर दिखाना शुरू किया। फलस्वरूप, सितम्बर 2008 के अंत में सत्यम कम्प्यूटर्स की बैलेंस शीट थी 5,361 करोड़ रुपए लेकिन कंपनी की कुल रकम 300 करोड़ रुपए ही थी।
ऑगस्टा वेस्टलैंड घोटाला
भारतीय वायुसेना के लिए 12 वीवीआईपी हेलिकॉप्टरों की खरीद के लिए एंग्लो-इतालवी कंपनी अगस्ता-वेस्टलैंड के साथ साल 2010 में किए गए 3 हजार 600 करोड़ रुपए के करार को जनवरी 2014 में भारत सरकार ने रद्द कर दिया था। इस करार में 360 करोड़ रुपए के कमीशन के भुगतान का आरोप लगा। कमीशन के भुगतान की खबरें आने के बाद भारतीय वायुसेना को दिए जाने वाले 12 एडब्ल्यू-101 वीवीआईपी हेलीकॉप्टरों की सप्लाई के करार पर सरकार ने फरवरी 2013 में रोक लगा दी थी। जिस वक्त करार पर रोक लगाने का आदेश जारी किया गया उस वक्त भारत 30 फीसदी भुगतान कर चुका था और तीन अन्य हेलीकॉप्टरों के लिए आगे के भुगतान की प्रक्रिया चल रही थी। इटली की एक अदालत ने इस मामले में फैसला सुनाते हुए माना कि इस डील में घोटाला हुआ था। इस मामले में पूर्व वायुसेना प्रमुक एसपी त्यागी का नाम आने के बाद अब उन्हें सीबीआई की रिमांड पर भेज दिया गया है। वहीं यह भी बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक इस डील में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी अहम भूमिका निभा रही थीं।
साल 2017 के अगस्त माह में भागलपुर के तत्कालीन जिलाधिकारी आदेश तितरमारे का साइन किया हुआ चेक बैंक ने वापस कर दिया था। इसेक पीछे बैंक ने तर्क दिया था कि खाते में पर्याप्त रकम नहीं है। इस बात पर जिलाधिकारी हैरान रह गए थे और मामले की तह तक जाने के लिए इसपर एक जांच कमेटी बैठा दी थी। कमेटी ने चांज रिपोर्ट सौंपी तो पता चला कि इंडियन बैंक और बैंक ऑफ़ बड़ौदा स्थित सरकारी खातों में पैसे नहीं हैं। जांच कमेट की रिपोर्ट पर उन्होंने मामले से जुड़ी पूरी जानकारी राज्य सरकार को दी और इसके बाद परत दर परत सृजन घोटाले की सच्चाई लोगों के सामने आने लगी।
सृजन घोटाला ही क्यों पड़ा नाम
इस घोटाले का नाम 'सृजन घोटाला' इसलिए रखा गया क्योंकि कई सरकारी विभागों की रकम सीधे विभागीय खातों में न जाकर या वहां से निकालकर 'सृजन महिला विकास सहयोग समिति' नाम के एनजीओ के छह खातों में ट्रांसफर कर दी जाती थी। फिर इस एनजीओ के कर्ता-धर्ता जिला प्रशासन और बैंक अधिकारियों की मिलीभगत से सरकारी पैसे को इधर-उधर कर देते थे। बड़ी साजिश को भांपते हुए तब बिहार के मुख्यमंत्री रहे नीतीश कुमार ने बिहार पुलिस के आर्थिक अपराध इकाई को इस घोटाले के खुलासे की जिम्मेदारी सौंप दी। सीएम के आदेशानुसार विशेष जांच दल भागलपुर पहुंचा। इसका नेतृत्व आईजी रैंक के पुलिस अधिकारी जेएस गंगवार कर रहे थे। जांच दल को तीन दिन यह समझने में लग गए कि सरकारी खाते का पैसा एक एनजीओ के खाते में कैसे जा रहा है।
44 लोगों के खिलाफ चार्जशीट
सृजन घोटाले के तीन मामलों में सृजन महिला विकास सहयोग समिति की सचिव रजनी प्रिया, संचालिका रहीं मनोरमा देवी और उनके बेटे अमित कुमार समेत 44 लोगों के खिलाफ सीबीआई ने बीते माह सितंबर में पटना सिविल कोर्ट की विशेष न्यायालय में चार्जशीट दाखिल की थी। इन तीनों मामलों में जिन 44 लोगों को आरोपी बनाया गया है, उनमें बैंक ऑफ बड़ौदा, बैंक ऑफ इंडिया, डूडा, कल्याण व सहरसा विशेष भू-अर्जन कार्यालय के अफसर व कर्मचारी शामिल हैं। आरोपितों में स्वयंसेवी संस्था सृजन की अध्यक्ष शुभ लक्ष्मी प्रसाद, मैनेजर सरिता झा, संयोजक मनोरमा के पुत्र अमित कुमार, बैंक और बड़ौदा के मुख्य प्रबंधक नैयर आलम, पूर्व मुख्य प्रबंधक अरुण कुमार सिंह, बैंक ऑफ इंडिया के मुख्य प्रबंधक दिलीप कुमार ठाकुर, डूडा के कार्यपालक अभियंता नागेंद्र भगत, रंजन कुमार समैयार, मनोज कुमार शामिल हैं।
मूल अधिकारों का पतन-
आज अराजकता के नाम पर फिल्मों और किताबों पर बैन लगाया जा रहा है। एक आम इंसान को अपने विचारों को व्यक्त करने के लिए दस बार सोचना पड़ता है कि कहीं उसपर राष्ट्रद्रोही का तमका तो नहीं लगाया जाएगा। आज इस कदर हालात बिगड़ गए हैं कि सरकार या न्यायालय भी आम इंसान के मूल अधिकारों की रक्षा करने में अक्षम हैं। पद्मावत के हादसे ने पूरे देश को हिला दिया था।
#किसानों_की_मृत्यु_एवं_पिछड़ता_कृषि_उद्योग-
आज किसानों को अन्नदाता नहीं बल्कि मतदाता की नज़र से देखा जाता है। ना जाने हमारे कितने किसान भाई रोज़ आत्महत्या कर रहे हैं लेकिन किसी को उनके दुख से वास्ता नहीं है। हद तो तब हो गयी जब तमिलनाडु के कुछ किसान संसद के बाहर महीनों तक धरना देते रहें और किसी ने उनकी और ध्यान नहीं दिया। और तो और कृषि उद्योग की बढ़ोतरी दर गिरती जा रही है, उनको पानी और खाद और पैसों की दिक्कतों का सामना करना पड़ता है और रही बात सरकार की मदद की तो वह बस ऊपरी बड़े किसानों तक ही सीमित रह गयी है।
2 जनवरी, 2020 को राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (National Crime Record Bureau- NCRB) ने वर्ष 2017 में कृषि क्षेत्र में आत्महत्या से संबंधित आँकड़ो को प्रकाशित किया है जिसमें कृषि क्षेत्र से संबंधित आत्महत्याओं में कमी देखी गई है।
महत्त्वपूर्ण बिंदु
NCRB के अनुसार, वर्ष 2017 में भारत में कृषि में शामिल 10,655 लोगों ने आत्महत्या की है। हालाँकि यह आँकड़ा वर्ष 2013 के बाद सबसे कम है।
आत्महत्या करने वालों में 5,955 किसान/कृषक और 4,700 खेतिहर मज़दूर थे, ध्यातव्य है कि इनकी संख्या वर्ष 2016 की तुलना में कम है। वर्ष 2017 में देश में आत्महत्या के सभी मामलों में कृषि से संबंधित लोगों द्वारा आत्महत्या का प्रतिशत 8.2% है।
NCRB ने अक्तूबर 2019 में 2017 के अपराध संबंधी आँकड़े जारी किये थे, लेकिन आत्महत्याओं से संबंधित आँकड़े जारी नहीं किये थे। वर्ष 2016 में कृषि क्षेत्र में आत्महत्या के आँकड़ो को जारी करते हुए भी NCRB ने किसान आत्महत्या में गिरावट का दावा किया था।
ध्यातव्य है कि वर्ष 2016 में 6270 किसानों ने, जबकि वर्ष 2015 में लगभग 8,007 किसानों ने आत्महत्या की एवं वर्ष 2016 में 5,109 कृषि मज़दूरों ने तथा वर्ष 2015 में 4,595 कृषि मज़दूरों ने आत्महत्या की।
हालाँकि आत्महत्या करने वाली महिला किसानों की संख्या 2016 के 275 से बढ़कर 2017 में 480 हो गई है।
वर्ष 2017 में कृषि क्षेत्र में सबसे अधिक आत्महत्याएँ महाराष्ट्र में (34.7 प्रतिशत) हुई हैं, उसके बाद कर्नाटक (20.3 प्रतिशत), मध्य प्रदेश (9 प्रतिशत), तेलंगाना (8 प्रतिशत) और आंध्र प्रदेश (7.7 प्रतिशत) में आत्महत्याएँ हुई हैं।
पश्चिम बंगाल, ओडिशा, नगालैंड, मणिपुर, मिज़ोरम, उत्तराखंड, चंडीगढ़, दादरा और नगर हवेली, दमन और दीव, दिल्ली, लक्षद्वीप तथा पुद्दूचेरी में किसानों या कृषि श्रमिकों द्वारा आत्महत्या किये जाने की नगण्य सूचनाएँ प्राप्त हुईं।
वर्ष 2016 के कृषि क्षेत्र में आत्महत्याओं से संबंधित आँकड़े वर्ष 2017 के आँकड़ो से मिलते-जुलते हैं। गौरतलब है कि वर्ष 2016 में कृषि क्षेत्र में आत्महत्याओं का प्रतिशत क्रमशः महाराष्ट्र में 32.2 प्रतिशत, कर्नाटक में 18.3 प्रतिशत, मध्य प्रदेश में 11.6 प्रतिशत, आंध्र प्रदेश में 7.1 प्रतिशत और छत्तीसगढ़ में 6 प्रतिशत था तथा वर्ष 2015 में भी कृषि क्षेत्र में आत्महत्याओं में महाराष्ट्र शीर्ष पर था एवं कर्नाटक और मध्य प्रदेश वर्ष 2016 की भाँति दूसरे और तीसरे स्थान पर थे।
NCRB देश भर से प्रतिवर्ष विभिन्न प्रकार के अपराधों से संबंधित आँकड़ो को इकठ्ठा करता है।
#डोलती_हुई_अर्थव्यवस्था-
आज पेट्रोल के दाम 80 के पार हो गये हैं। रुपया 70 के नीचे गिर गया है। पूरे देश में से लाखों करोड़ रुपये गायब हो गये हैं क्योंकि कुछ लोग बैंकों को धोखा देकर देश से चंपत हो गये हैं। महंगाई बढ़ती जा रही है और भारत की जनसंख्या के अनुसार आर्थिक दर जो होनी चाहिए, उतनी अभी नहीं है।
कुछ समय पूर्व ही भारत के सकल घरेलू उत्पाद (GDP) के आँकड़े ज़ारी किये गए हैं। वर्ष 2019 की प्रथम तिमाही के लिये GDP की वृद्धि दर घटकर 5 प्रतिशत पर आ गई है। ये आँकड़े पिछले 6 वर्ष में सबसे खराब माने जा रहे हैं। ध्यातव्य है कि इसी तिमाही के लिये 8 प्रतिशत की वृद्धि दर का अनुमान लगाया गया था, जबकि इससे पूर्व की तिमाही (मार्च) के लिये यह आँकड़ा 5.8 प्रतिशत था। विनिर्माण क्षेत्र की स्थिति की जानकारी देने वाले आठ कोर उद्योगों की वृद्धि दर पिछले अप्रैल-जुलाई की अवधि के मध्य यह घटकर 3 प्रतिशत पर आ गई, जबकि पिछले वर्ष के लिये यह 5.8 प्रतिशत थी। उपरोक्त आँकड़ों के प्रकाश में आने तथा ऑटो सेक्टर तथा दैनिक उपयोग के सामानों (Fast Moving Consumer Goods-FMCG) से जुड़ी कंपनियों की वृद्धि दर में हुई गिरावट से विभिन्न आर्थिक विश्लेषकों ने भारत में मंदी की आशंका व्यक्त की है। हालाँकि पिछली दो तिमाहियों की GDP वृद्धि दर को देखते हुए स्लोडाउन से इनकार नहीं किया जा सकता जिसके मूल कारण के रूप में मांग में कमी को रेखांकित किया जा सकता है।
स्लोडाउन के कारण
भारत में पिछली दो तिमाही से लगातार आर्थिक वृद्धि दर में गिरावट आ रही है जिसे स्लोडाउन के रूप में देखा जा रहा है, स्लोडाउन के निम्नलिखित संभावित कारण हैं-
विमुद्रीकरण: वर्ष 2016 में अर्थव्यवस्था के डिजिटलीकरण के लिये विमुद्रीकरण का क्रियान्वयन किया गया। विमुद्रीकरण ने भारत के असंगठित क्षेत्र तथा रियल एस्टेट को सर्वाधिक प्रभावित किया। ध्यातव्य है कि भारत में 90 प्रतिशत से भी अधिक रोज़गार असंगठित क्षेत्र से प्राप्त होता है। विमुद्रीकरण से लोगों का रोज़गार प्रभावित हुआ। जिसके चलते लोगों की आय में कमी आई, परिणामतः लोगों के उपभोग स्तर में भी गिरावट आई। यह ध्यान देने योग्य है कि इस प्रकार के कारकों का प्रभाव कुछ वर्षों बाद पड़ता है।
वस्तु एवं सेवा कर (GST): एक देश एक कर के रूप में GST को भारत में आर्थिक क्षेत्र के सबसे बड़े सुधारों में से एक माना जाता है किंतु इसके ढाँचे तथा क्रियान्वयन को लेकर उत्पन्न समस्याओं ने उद्यमों को नकारात्मक रूप से प्रभावित किया है। हाल में ज़ारी आँकड़ों से यह जानकारी मिलती है कि अगस्त माह के लिये GST कर संग्रहण घटकर एक लाख करोड़ रुपए से भी कम हो गया है।
रोज़गार में कमी: विमुद्रीकरण तथा GST से असंगठित क्षेत्र में रोज़गार की कमी आई है। तथा विदेशी निवेश के सीमित होने से भी नए रोज़गारों का सृजन नहीं हो सका है। कुछ समय पूर्व NSSO के आँकड़ों में यह रेखांकित किया गया था कि बेरोज़गारी पिछले 45 वर्षों में सर्वाधिक बढ़ी है। उपरोक्त कारकों से जहाँ रोज़गार में कमी आई वहीं गुणवत्तापरक रोज़गार का सृजन नहीं हो सका, परिणामस्वरूप मांग में कमी आई।
ग्रामीण मांग में कमी: पिछले कुछ वर्षो के दौरान सरकार की योजनाएँ मुद्रास्फीति को कम करने के उद्देश्य से प्रेरित रही हैं। इसका परिणाम यह हुआ कि मुद्रास्फीति में गिरावट आई तथा यह गिरावट मुख्य रूप से खाद्य मुद्रास्फीति में देखी गई, जबकि गैर-खाद्य मुद्रास्फीति खाद्य मुद्रास्फीति दर को भी पार कर गई। यदि इस तथ्य का विश्लेषण करें तो ज्ञात होता है कि खाद्य मुद्रास्फीति में कमी किसानों को उनकी फसलों का उचित दाम न मिल पाने के कारण हुई, जबकि गैर-खाद्य मुद्रास्फीति की गति अधिक बनी रही है। एक ओर ग्रामीण क्षेत्र में धन का प्रवाह नहीं हो सका, वहीं दूसरी ओर ग्रामीण क्षेत्र का धन शहरी क्षेत्र की ओर प्रवाहित होता रहा क्योंकि खाद्य मुद्रास्फीति गैर-खाद्य मुद्रास्फीति से कम थी। ग्रामीण आय जो वर्ष 2013-14 में 28 प्रतिशत की दर से वृद्धि कर रही थी वह 2018-19 में घटकर 3.7 प्रतिशत पर आ गई। ध्यान देने योग्य है कि भारत की 70 प्रतिशत जनसंख्या अभी भी ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करती है तथा ग्रामीण क्षेत्र की आय में कमी आने से सर्वाधिक प्रभाव FMCG उत्पादों तथा ऑटो क्षेत्र पर हुआ।
वित्तीय क्षेत्र का संकट: पिछले एक दशक से गैर-निष्पादित संपत्ति (NPA) की दर उच्च बनी हुई है। यह दर कुल ऋण के अनुपात में वर्ष 2014 में 11 प्रतिशत को भी पार कर गई थी। हालाँकि NPA में लगातार कमी आई है किंतु अभी भी इसका अनुपात उच्च बना हुआ है, इसके अतिरिक्त गैर-बैंकिंग वित्तीय निगम (NBFC) का संकट गहराया है। NBFC का जुड़ाव म्यूचुअल फंड, बैंकों तथा उद्यमों में होता है, अतः यह भी भारत की आर्थिक वृद्धि दर को प्रभावित कर रहा है।
मौद्रिक नीति: भारत में वर्ष 2013-14 में खुदरा मुद्रास्फीति दर 9.4 प्रतिशत थी। इस परिप्रेक्ष्य में नीति निर्माताओं और भारतीय रिज़र्व बैंक ने मुद्रास्फीति में कमी करने के लिये मौद्रिक नीति का सहारा लिया। पिछले कुछ वर्षों से कठोर मौद्रिक नीति पर बल दिया गया और इसके तहत रेपो दरों को ऊँचा रखा गया जिससे बाज़ार में उधार लेने की क्षमता कम हो गई क्योंकि ऋण महँगे हो गए। इसका परिणाम यह हुआ कि मुद्रास्फीति में कमी आई, जो वर्ष 2018-19 के लिये 3.4 प्रतिशत रही लेकिन इसने मौद्रिक नीति बाज़ार को भी कमज़ोर कर दिया। पिछले कुछ समय से इसी को ध्यान में रखकर RBI लगातार रेपो दरों को कम कर रहा है ताकि स्थिति में सुधार किया जा सके। ध्यान देने योग्य है कि इस वर्ष में अगस्त माह के लिये रेपो दर 5.40 प्रतिशत पर है।
राजकोषीय नीति: भारत के लगातार ऊँचे राजकोषीय घाटे को ध्यान में रखकर राजकोषीय उत्तरदायित्त्व और बजट प्रबंधन अधिनियम (FRBM Act) को संसद ने पारित किया। इसके अनुसार सरकार को तय समय के भीतर अपने राजकोषीय घाटों को कम करना था। वर्ष 2008 के सबप्राइम संकट (आर्थिक मंदी) से भारत को उभारने के लिये सरकार को अत्यधिक वित्तीय सहायता देनी पड़ी, इससे राजकोषीय घाटे में और अधिक वृद्धि हुई। यह घाटा वर्ष 2013-14 के लिये 4.5 प्रतिशत था (वर्ष 2018-19 में 3.4 प्रतिशत का संशोधित अनुमान), जिसे किसी अर्थव्यवस्था के लिये उचित नहीं माना जा सकता। राजकोषीय घाटे को कम करने के लिये आवश्यक होता है कि सरकार के खर्च और प्राप्तियों के मध्य अंतर को कम-से-कम किया जाए। इसे राजस्व संग्रहण को बढ़ाकर या सरकार द्वारा खर्चों को कम करके किया जा सकता है। विमुद्रीकरण और GST से उद्योगों की स्थिति प्रतिकूल रूप से प्रभावित हुई, जिससे राजस्व संग्रहण में वृद्धि की सीमित संभावना थी। इसके लिये सरकार को अपने खर्चों में कटौती करनी पड़ी, इससे ग्रामीण क्षेत्र और कमज़ोर वर्ग का कल्याण प्रभावित हुआ क्योंकि पहले से ही ग्रामीण क्षेत्र की स्थिति कमज़ोर थी, सरकार के इस कदम से स्थिति और खराब हो गई।
वैश्विक कारक: अमेरिकी प्रशासन की संरक्षणवादी नीतियों तथा चीन के साथ छिड़े व्यापार युद्ध ने विश्व व्यापार को संकुचित किया है। इसके अतिरिक्त, ब्रेक्ज़िट पर असमंजस, लंबे समय से मध्य पूर्व का संकट तथा ईरान से तेल आयात पर प्रतिबंध ने भी समस्या को बढ़ाया है। हालाँकि भारत के निर्यात में जुलाई 2019 में पिछले वर्ष की तुलना में 2 प्रतिशत की वृद्धि हुई है लेकिन यह वृद्धि बेस इफ़ेक्ट के कारण हैं क्योंकि पिछले वर्ष निर्यात कम था। इसके अतिरिक्त पिछले कुछ वर्षों के दौरान अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल (Crude Oil) के दाम कम थे, अब इन मूल्यों में भी वृद्धि हो रही है। ध्यान देने योग्य है कि भारत अपनी तेल आवश्यकता के लिये आयात पर ही निर्भर है, ऐसे में यह न सिर्फ भारत के व्यापार घाटे को बल्कि मुद्रास्फीति में भी वृद्धि करेगा। जुलाई माह के लिये ही आयात में 10 प्रतिशत से भी अधिक की गिरावट आई है। प्रायः आयात में कमी को व्यापार संतुलन की दृष्टि से उचित समझा जाता है लेकिन आयात में कमी भारतीय अर्थव्यवस्था में मांग में कमी को दर्शाती है।
बचत में कमी: बेरोज़गारी एवं अन्य कारकों से घरेलू (Households) बचत में कमी आई है। वित्त वर्ष 2012 के लिये यह बचत दर 35 प्रतिशत थी जो घटकर वित्त वर्ष 2018 में 17 प्रतिशत पार आ चुकी है। ध्यान देने योग्य है कि घरेलू तथा MSME की बचत मिलकर GDP में कुल बचत के 23.6 प्रतिशत के लिये ज़िम्मेदार है। यह बचत प्रमुख रूप से निवेश के लिये उपयोगी होती है लेकिन इसमें कमी के कारण बैंकों के पास भी तरलता की कमी है इससे बैंकों की ब्याज दरें भी उच्च बनी हुई हैं तथा बाज़ार को सस्ती दर पर ऋण उपलब्ध नहीं हो पा रहा है, परिणामतः आर्थिक वृद्धि दर प्रभावित हो रही है।
चक्रीय कारक: भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा हाल ही जारी एक रिपोर्ट में दावा किया गया है कि भारत के स्लोडाउन की प्रकृति चक्रीय है। किसी भी अर्थव्यवस्था में मंदी, स्लोडाउन अथवा सुस्ती, रिकवरी आदि के चरण एक व्यापार चक्र अथवा समयावधि में आते रहते हैं, इसके लिये कोई एक कारण ज़िम्मेदार नहीं होता तथा सरकारी प्रयासों से ऐसी स्थिति से निपटा जाता है और यह स्थिति सभी देशों में विद्यमान है। भारत में भी वर्ष 2008 में मंदी आई जिससे अर्थव्यवस्था को उबार लिया गया, इसके पश्चात् वर्ष 2012-13 में भी स्लोडाउन की स्थिति देखी गई, वर्तमान में भी भारत कुछ ऐसी ही स्थिति का सामना कर रहा है, जो अर्थव्यवस्था की प्रकृति में ही विद्यमान में है।
बैंकों का विलय: वित्त मंत्रालय ने क्रेडिट फ्लो को सुधारने तथा NPA की समस्या से निपटने हेतु बैंकों के विलय की योजना तैयार की है, इससे 10 बैंकों का विलय करके 4 बैंकों में परिवर्तित कर दिया जाएगा। वर्तमान में भारत स्लोडाउन का सामना कर रहा है तथा आर्थिक विश्लेषकों द्वारा ऐसा कहा जा रहा है कि बैंकों की वर्तमान क्रेडिट ग्रोथ की स्थिति ठीक नहीं है। हालाँकि दीर्घ अवधि में बैंकों के विलय के सकारात्मक परिणाम प्राप्त होने की संभावना है लेकिन ऐसे समय जब क्रेडिट ग्रोथ की स्थिति सुदृढ़ नहीं है तथा उद्यमों को बैंकों की आवश्यकता है, यह स्थिति को और खराब कर सकता है।
व्यापार चक्र (Business Cycle)
अर्थव्यवस्थाओं में वह अवधि जिसमें उछाल अथवा उच्च आर्थिक वृद्धि दर, मंदी, रिकवरी आदि का चक्र शामिल होता है, उसको व्यापार चक्र की संज्ञा दी जाती है; इसी परिप्रेक्ष्य में RBI भारत में आए स्लोडाउन को चक्रीय कारक की संज्ञा दे रहा है।
स्लोडाउन: यह किसी अर्थव्यवस्था की ऐसी स्थिति को प्रदर्शित करती है जिसमें सकल घरेलू उत्पाद (GDP) की वृद्धि दर में गिरावट आती है किंतु अर्थव्यवस्था निम्न गति से वृद्धि करती रहती है।
संकुचन (Contraction): जब अर्थव्यवस्था की किसी तिमाही की GDP वृद्धि दर नकारात्मक हो जाती है तो ऐसी स्थिति को संकुचन कहा जाता है।
मंदी (Recession): यदि अर्थव्यवस्था में लगातार दो तिमाही में आर्थिक वृद्धि की दर नकारात्मक हो तो उसे मंदी की संज्ञा दी जाती है। इसके अतिरिक्त ऐसी स्थिति में मांग में कमी आती है, मुद्रास्फीति दर में गिरावट आती है, साथ ही रोज़गार में कमी होती है तथा बेरोज़गारी में वृद्धि होती है।
अवसाद अथवा महामंदी (Depression): इस स्थिति में मंदी का वातावरण बना रहता है तथा अर्थव्यवस्था की स्थिति और भी खराब हो जाती है। कारोबार को बनाए रखने के लिये तेज़ी से कर्मचारियों की छंटनी की जाती है और इससे बेरोज़गारी में तीव्र वृद्धि होती है। मांग में बेहद कमी आने के कारण मुद्रास्फीति में भी अत्यधिक गिरावट होती है। इसके अतिरिक्त सरकार आर्थिक गतिविधियों पर अपना नियंत्रण खो देती है। ध्यान देने योग्य है कि आधुनिक अर्थव्यवस्था में केवल एक बार वर्ष 1929 में विश्व को महामंदी (Depression) का सामना करना पड़ा है।
रिकवरी: उपरोक्त स्थिति में सरकार प्रोत्साहन (Stumulus) द्वारा अर्थव्यवस्था को उभारने का प्रयास करती है, इसके लिये मौद्रिक और राजकोषीय नीति का उपयोग किया जाता है। मौद्रिक नीति के तहत केंद्रीय बैंक ब्याज दरों को कम करता है तथा बाज़ार में तरलता को बढ़ाती है। राजकोषीय नीति के ज़रिये सरकार करों में कटौती करती है और सरकारी खर्च में वृद्धि करती है। इन सभी प्रोत्साहनों का मुख्य उद्देश्य उद्यमों की स्थिति को सुधारना तथा मांग में वृद्धि करना होता है और इस प्रकार धीरे-धीरे अर्थव्यवस्था सामान्य स्थिति में आने लगती है।
स्लोडाउन: चक्रीय अथवा संरचनात्मक
रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया द्वारा मौजूदा स्थिति को चक्रीय बताया गया है लेकिन आर्थिक विश्लेषक RBI से सहमत नहीं है। विश्लेषकों का मानना है कि भारत में उपजा स्लोडाउन चक्रीय के साथ-साथ संरचनात्मक भी है तथा इसके लिये समष्टिगत कारक ज़िम्मेदार हैं और सरकारी प्रोत्साहन के साथ ही मज़बूत आर्थिक सुधारों के पश्चात् इस स्लोडाउन का समाधान किया जा सकता है। अर्थव्यवस्था के मूलभूत पक्ष जैसे- मांग, अवसंरचना, रोज़गार, बचत, क्रेडिट ग्रोथ, श्रम सुधार, GDP वृद्धि दर, अंतर्राष्ट्रीय व्यापार आदि को समष्टिगत कारकों के रूप में रेखांकित किया जाता है।
स्लोडाउन के प्रभाव
अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने वाले कारक चाहे सुधार से संबंधित हों अथवा दुष्प्रभाव उत्पन्न करने वाले इन्हें प्रदर्शित होने में कुछ समय लगता है। विमुद्रीकरण एवं GST से आरंभ हुआ मुद्रा का संकट और मांग की कमी अन्य कारकों के साथ मिलकर वर्तमान में स्लोडाउन का रूप ले चुकी है, यह मौजूदा आर्थिक वृद्धि दर में दृष्टिगत होता है। जब लोगों के पास धन की कमी होती है तो लोग ऐसी वस्तुओं से किनारा कर लेते हैं, जो उनके लिये कम आवश्यक होती हैं, इसलिये ऐसे क्षेत्र जो लोगों के लिये आधारिक रूप से संबद्ध नहीं हैं, सबसे पहले प्रभावित होते हैं।
वर्तमान में ऑटो सेक्टर गंभीर संकट से जूझ रहा है, मारुति जैसी कंपनी जो अपने लाभ को कम आर्थिक वृद्धि दर में भी बनाए रखती थी, को संकट का सामना करना पड़ रहा है। पिछले 6 माह से भी कम समय में 3.5 लाख लोग रोज़गार खो चुके हैं।
FMCG क्षेत्र जो पिछले कई वर्षों से लगातार तीव्र वृद्धि करता रहा है, उसकी भी गति धीमी हो चुकी है। आर्थिक विश्लेषकों का कहना है कि FMCG उत्पाद रोजमर्रा की आवश्यकताओं की पूर्ति से संबंधित होते हैं, यदि इस क्षेत्र की भी वृद्धि दर में गिरावट आ रही है तो इसका अर्थ है कि लोग अपने भोजन संबंधी आवश्यकताओं में कटौती कर रहे हैं क्योंकि ग्रामीण क्षेत्र गंभीर आय के संकट से जूझ रहा है।
ऑटो एवं FMCG क्षेत्र बड़ी मात्रा में रोज़गार उत्पन्न करते हैं, यदि स्लोडाउन की स्थिति गंभीर होती है तो रोज़गार पर गंभीर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। ध्यान देने योग्य है कि पहले से ही भारत में बेरोज़गारी दर अत्यधिक उच्च है, रोज़गार की कमी स्लोडाउन और मंदी के लिये उत्प्रेरक का कार्य करती है क्योंकि यह एक ऐसे दुश्चक्र का निर्माण करती है जिससे मांग में लगातार कमी होती जाती है और उद्यम अपने कारोबार को ज़ारी रखने के लिये लगातार छटनी करते जाते हैं।
निष्कर्ष
वित्त वर्ष 2025 तक सरकार ने भारत की अर्थव्यवस्था को 5 ट्रिलियन डॉलर तक पहुँचाने का लक्ष्य तय किया है, लेकिन वर्तमान आर्थिक वृद्धि दर को देखते हुए यह लक्ष्य प्राप्त होना संभव नहीं है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये भारत को प्रतिवर्ष 12 प्रतिशत की नॉमिनल वृद्धि दर की आवश्यकता है, यदि यह स्लोडाउन कुछ समय तक और बना रहता है तो इससे उभरने में समय लगेगा, जो भारत की भविष्य की योजनाओं को प्रभावित कर सकता है। ध्यातव्य है कि GDP एक रोटी (Bread) के समान है यदि उसके हिस्सों को बड़ा करना है तो रोटी का आकार भी बड़ा करना पड़ेगा अर्थात् अन्य ज़रूरी क्षेत्रों जैसे- स्वास्थ्य, शिक्षा, प्रतिरक्षा, अवसंरचना में अधिक खर्च करना है, तो इसके लिये आर्थिक वृद्धि दर का तीव्र होना आवश्यक है।
#_अमीर_गरीब_के_बीच_का_बढ़ता_हुआ_भेदभाव-
थोड़े महीनों पहले की ऑक्सफैम की रिपोर्ट ने साबित कर दिया की भारत में ऊपरी 1% लोगों के पास देश की 58% संपत्ति है। देश के गरीब और गरीबी में धंसते जा रहे हैं और जो अमीर हैं वह और अमीर होते जा रहे हैं। झुग्गियों और आलीशान महल के बीच का फासला बढ़ता ही जा रहा है।
#प्रदूषण_की_मार-
हमारी नदियां और हवा इस कदर दूषित हो गयी हैं कि अब उनको साफ कर पाना या उनके बुरे असर से बच पाना लगभग नामुमकिन सा हो गया है। भारत अब दुनिया के सबसे प्रदूषित देशों में से सबसे अव्वल स्थान पर है। हमारे यहां इस कारण लोगों के स्वास्थ्य पर भी गहरा नुकसान हो रहा है। यमुना का हाल तो हम सब जानते ही हैं।
दुनिया के सबसे प्रदूषित 30 शहरों में 21 भारत के; दक्षिण एशियाई देशों की हालत सबसे ज्यादा खराब
दिल्ली में दिवाली के आसपास हर साल वायु प्रदूषण की स्थिति बेहद गंभीर हो जाती है। (फाइल)
दिल्ली में दिवाली के आसपास हर साल वायु प्रदूषण की स्थिति बेहद गंभीर हो जाती है। (फाइल)
पिछली बार के मुकाबले इस बार भारत में वायु प्रदूषण 20% घटा, रिपोर्ट में इस सुधार का कारण आर्थिक मंदी बताया गया
दुनियाभर में वायु प्रदूषण के सबसे खराब स्तर वाले शहरों की सालाना लिस्ट में भारत के शहर एक बार फिर टॉप पर हैं। यूपी का गाजियाबाद इस लिस्ट में पहले नम्बर पर है। टॉप-10 में से 6 और टॉप-30 में कुल 21 शहर भी भारत के हैं। वर्ल्ड एयर क्वालिटी रिपोर्ट-2019 का यह डेटा आईक्यूएआईआर के शोधकर्ताओंने तैयार किया है। हर साल यह रिपोर्ट तैयार होती है। 2018 की रिपोर्ट में टॉप-30 प्रदूषित शहरों में भारत के 22 शहर शामिल थे।
नई रिपोर्ट के मुताबिक, यूपी के गाजियाबाद का 2019 में औसत पीएम2.5 (μg/m³)- 110.2 था, जो दुनियाभर में सबसे खराब था। इसके बाद अगले तीन स्थानों पर चीन और पाकिस्तान के शहर हैं, लेकिन जैसे-जैसे लिस्ट आगे बढ़ती है, भारत के शहरों की संख्या भी इसमें बढ़ती जाती है। टॉप-50 तक भारत के 26 शहर इस लिस्ट में आ जाते हैं। इस लिस्ट के टॉप-50 में सभी शहर एशियाई देशों के हैं। इन सभी का सालाना औसत पीएम2.5 (μg/m³)- 60 से ज्यादा रहा है।
आज विकास की अंधी दौड़ में औद्योगिक गतिविधियों के विस्तार एवं तीव्र नगरीकरण ने देश की प्रमुख नदियों विशेष रूप से गंगा, यमुना, गोदावरी, कावेरी, नर्मदा एवं कृष्णा को प्रदूषित कर दिया है। जल की गुणवत्ता में गिरावट का एक प्रमुख कारण बढ़ता जल प्रदूषण है।
नवंबर 2019 को भारतीय मानक ब्यूरो (Bureau of Indian Standards-BIS) द्वारा जल की गुणवत्ता पर प्रकाशित रिपोर्ट में यह बताया गया है कि जल सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिये अति आवश्यक है तथा बेहतर पारिस्थितिकी के निर्माण में इसकी भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता। रिपोर्ट द्वारा प्रदर्शित आँकड़ों ने एक बार पुनः जल की गुणवत्ता संबंधी प्रश्न को चर्चा के केंद्र में ला दिया है।
रिपोर्ट संबंधी प्रमुख तथ्य
जल जीवन मिशन के अंतर्गत वर्ष 2024 तक सभी को स्वच्छ पेयजल उपलब्ध कराने संबंधी उद्देश्य के तत्त्वावधान में भारतीय मानक ब्यूरो ने 21 महानगरों में जल की गुणवत्ता का परीक्षण करने के लिये सैंपल एकत्र किये।
राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली में लिये गए जल के सैंपल भारतीय मानक ब्यूरो के परीक्षण में 28 मानकों में से 19 मानकों पर विफल साबित हुए।
रिपोर्ट में यह भी बताया गया कि भारत एक गंभीर जल संकट की चपेट में है, जल की प्रति व्यक्ति उपलब्धता लगातार कम होती जा रही है।
राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली में जनगणना 2011 के आँकड़ों के अनुसार, लगभग 33.41 लाख परिवार निवास करते हैं जिनमें से 27.16 लाख अर्थात् 81.30% घरों में पाइप आपूर्ति प्रणाली के माध्यम से जल उपलब्ध कराया जाता है। हालाँकि मात्र 75.20% घरों में ही उपचारित जल की आपूर्ति सुनिश्चित की जाती है।
वर्ष 2030 तक पेयजल आपूर्ति की मांग बढ़कर वर्तमान मांग (1508 क्यूबिक मीटर) से दोगुनी हो जाएगी।
भारतीय मानक ब्यूरो ने वर्ष 2018 में प्रकाशित नीति आयोग की रिपोर्ट के हवाले से बताया कि लगभग 600 मिलियन लोग गंभीर जल संकट का सामना कर रहे हैं। इसलिये स्वच्छ जल की गुणवत्ता मानवीय अस्तित्व के लिये बहुत आवश्यक है।
#बढ़ता_अपराध_और_आतकंवाद-
चाहे जम्मू कश्मीर की सरहद पर पाकिस्तान की नज़र के कारण या फिर असामाजिक तत्वों के कारण, भारत में दिन प्रतिदिन आतंक और अपराध की बढ़ोतरी हो रही है। पुलिस लोगों की सुरक्षा करने में नाकाम हो गयी है और जबसे अपराधियों को संसद में जगह मिली है, तबसे तो देश मे गुंडागर्दी का माहौल पैदा हो गया है। ऐसे में तो अपराधियों को कानून का मज़ाक उड़ाने से कोई नहीं रोक सकता।देश में आतंकवादी हिंसा की बढ़ती घटनाओं के दृष्टिगत भारत में उभरती हुई एक सर्वसम्मति है कि आतंकवाद से निपटने के लिये एक सुदृढ़ विधायी ढाँचा सृजित किया जाना चाहिये। यहाँ तक कि मानवाधिकारों और संवैधानिक मूल्यों को सुरक्षित रखते हुए भी आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई में सुरक्षा बलों को सुदृढ़ करने की आवश्यकता है।
आज आतंकवाद सार्वजनिक व्यवस्था के मुद्दों से बढ़कर हो गया है क्योंकि यह संगठित अपराध, गैर-कानूनी वित्तीय अंतरणों और शस्त्र तथा मादक द्रव्यों के अवैध व्यापार के जैसे कृत्यों के साथ समायोजित हो गया है, जो राष्ट्रीय सुरक्षा के लिये गंभीर खतरा हैं। भारत जैसा बहु-सांस्कृतिक, उदार और प्रजातांत्रिक देश अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण आतंकवादी कृत्यों के प्रति अत्यंत सुभेद्य है।
आतंकवाद : प्रकार, उत्पत्ति और परिभाषा
‘आतंकवाद’ शब्द की उत्पत्ति फ्राँसीसी क्रांति के दौरान वर्ष 1793-94 के आतंक के शासन से हुई।
यूरोप और अन्यत्र भी विशेषकर 1950 के दशक के उत्तरार्द्ध में वामपंथी उग्रवाद उभर कर सामने आया। भारत में नक्सली और माओवादी सहित पश्चिम जर्मनी में रेड आर्मी गुट, जापान का रेड आर्मी गुट, संयुक्त राज्य अमेरिका में विदरमेन और ब्लैक पैन्थर्स, उरुग्वे के तूपामारोस और अन्य कई वाम पंथी उग्रवादी दल विश्व के भिन्न-भिन्न भागों में 1960 के दशक के दौरान उत्पन्न हुए।
आज अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद अधिकांशत: इस्लामी रूढ़िवाद की विचारधारा से प्रेरित है तथा इसकी अग्र पंक्ति में ओसामा बिन लादेन का अल-कायदा और इसके घनिष्ठ सहयोगी अफगानिस्तान में तालिबान हैं। सोवियत-विरोधी नीतियों के कारण तालिबानों की तेज़ वृद्धि संयुक्त राज्य अमेरिका की CIA और पाकिस्तान की ISI द्वारा दिये गए व्यापक संरक्षण के कारण संभव हुई थी। इससे न केवल अफगानिस्तान बल्कि पाकिस्तान और भारत में भी सुरक्षा संबंधी गंभीर चिंताएँ उत्पन्न हो चुकी हैं।
आतंकवाद के प्रकार
आतंकवादी समूह/समूहों के उद्देश्यों के आधार पर आतंकवादी गतिविधियों के मुख्य प्रकारों में निम्नलिखित को शामिल किया जाता है-
1. मानवजातीय-राष्ट्रवादी आतंकवाद
(Ethno-Nationalist Terrorism)
डेनियल बाइमैन के अनुसार अपने उद्देश्यों को आगे बढ़ाने के लिये किसी उप-राष्ट्रीय मानवजातीय समूह द्वारा जान बूझकर की गई हिंसा को मानवजातीय आतंकवाद कहा जा सकता है। ऐसी हिंसा प्राय: या तो पृथक राज्य के सृजन अथवा एक मानवजातीय समूह द्वारा दूसरे समूहों की तुलना में अपने स्तर को बढ़ाने के लिये किया जाता है। श्रीलंका में तमिल राष्ट्रवादी समूह और पूर्वोत्तर भारत में अलगाववादी समूह मानवजातीय-राष्ट्रवादी आतंकवादी गतिविधियों के उदाहरण हैं।
2. धार्मिक आतंकवाद
(Religious Terrorism)
वर्तमान में अधिकांशत: आतंकवादी गतिविधियाँ धार्मिक आदेशों और आवश्यकताओं द्वारा अभिप्रेरित होती हैं। हॉफमैन के अनुसार पूर्णत: अथवा अंशत: धार्मिक आदेशों द्वारा प्रेरित आतंकवादी हिंसा को दैवीय कर्त्तव्य अथवा पवित्र कृत्य मानते हैं।
अन्य आतंकवादी समूहों की तुलना में धार्मिक आतंकवादी वैधता और औचित्य के विभिन्न साधनों का प्रयोग करते हैं जो धार्मिक आतंकवाद को प्रकृति में और अधिक विनाशकारी बना देता है।
3. विचारधारोन्मुख आतंकवाद
(Ideology Oriented Terrorism)
हिंसा और आतंकवाद में विचारधारा के उपयोग के आधार पर आतंकवाद को साधारणतया दो वर्गों-वामपंथी और दक्षिणपंथी आतंकवाद में वर्गीकृत किया जाता है।
वामंपथी आतंकवाद- अधिकांशत: वामपंथी विचारधाराओं से प्रेरित होकर शासक वर्ग के विरुद्ध कृषक वर्ग द्वारा की गई हिंसा को वामपंथी आतंकवाद कहा जाता है।
वामपंथी विचाराधारा विश्वास करती है कि पूंजीवादी समाज में मौजूदा सभी सामाजिक संबंध और राज्य की प्रकृति शोषणात्मक है और हिंसक साधनों के माध्यम से एक क्रांतिकारी परिवर्तन अनिवार्य है। भारत और नेपाल में माओवादी गुट इसके उदाहरण हैं।
दक्षिणपंथी आतंकवाद - दक्षिणपंथी समूह आमतौर पर यथास्थिति (Status-Quo) बनाए रखना चाहते हैं अथवा अतीत की उस पूर्व स्थिति को स्थापित करना चाहते हैं जिसमें वे संरक्षित महसूस करते हैं।
कभी-कभी दक्षिणपंथी विचारधाराओं का समर्थन करने वाले समूह नृजातीय/नस्लभेदी चरित्र भी अपना लेते हैं। वे सरकार को किसी क्षेत्र को अधिग्रहीत करने अथवा पड़ोसी देश में ‘‘उत्पीड़ित’’ अल्पसंख्यकों (अर्थात) के अधिकारों का संरक्षण करने के लिये हस्तक्षेप करने हेतु बाध्य कर सकते हैं, जैसे- जर्मनी में नाजी पार्टी।
प्रवासी समुदायों के विरुद्ध हिंसा भी आतकवादी हिंसा की इस श्रेणी के अधीन आती है, यहाँ उल्लेखनीय है कि दक्षिणपंथी हिंसा के लिये धर्म एक समर्थक भूमिका निभा सकता है। इनके उदाहरण हैं: जर्मनी में नाजीवाद, इटली में फासीवाद, संयुक्त राज्य अमेरिका में कू क्लक्स क्लान (केकेके) के रूप में श्वेत आधिपत्य आदि।
4. राज्य-प्रायोजित आतंकवाद
(State-sponsored Terrorism)
राज्य-प्रायोजित आतंकवाद अथवा छद्म युद्ध (Proxy War) भी सैन्य युद्ध के इतिहास जितना ही पुराना है। बड़े पैमाने पर राज्य-प्रायोजित आतंकवाद 1960 एवं 1970 के दशक में अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में उभरा और आज धार्मिक आतंकवाद के साथ राज्य-प्रायोजित आतंकवाद ने विश्व भर में आतंकवादी गतिविधियों की प्रकृति काफी परिवर्तित कर दी है।
राज्य-प्रोयाजित आतंकवाद की एक विशेषता यह है इसे प्रचार माध्यमों का ध्यान आकर्षित करने अथवा संभावित व्यक्तियों को लक्षित करने की बजाए कतिपय स्पष्टतया परिभाषित विदेशी नीति के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये प्रारंभ किया जाता है। इस कारण यह बहुत कम बाधाओं के अधीन कार्य करता है और अत्यधिक नुकसान पहुँचाता है।
संयुक्त राज्य के अधीन पश्चिमी शक्तियों ने संपूर्ण शीत युद्ध में सभी राष्ट्रवादियों और साम्यवाद-विरोधियों का समर्थन किया
उफ्फ! यह तो सिर्फ कुछ बड़ी समस्याओं के बारे में मैंने छोटा सा वर्णन किया है। असलियत में तो सच्चाई और भी निराशाजनक है। पर ऐसा नहीं है कि कोई इनसे निपट नहीं रहा है, सब कोशिश कर रहे हैं। बस सबके तरीके अलग हैं और एक दूसरे से मेल नहीं खाते। ज़रूरत है तो सबको एकजुट आने की। सरकार, पुलिस, आम आदमी और गैर-सरकारी संस्थाओं के एक बार साथ आने के बाद कोई भी ऐसी दिक्कत नहीं है जो भारत दूर नहीं कर सकता। बस यहां एक और सवाल उठता है- आखिर यह सब साथ कब आएंगे?
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